Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
अष्टम अध्याय........{456} का पुरुष के प्रति आकर्षण बना रहता है । अन्यथा भी इस आकर्षण में अपनी ही अवमदित चेतना को प्रतिबिम्बित पाता है । इसलिए पुरुष और स्त्री दोनों में आकर्षण सहज होता है।
___ जब उसे अनुभव हो जाता है कि बाह्य विषयों में कोई आकर्षण नहीं है, आकर्षण का स्रोत भीतर है, तभी दोनों वेद से मुक्त होकर निर्वेद होता है और यथार्थ रूप में ब्रह्मचर्य परिपक्व होता है । तब व्यक्ति अपने आप में पूर्ण बन जाता है और बाह्य विषयों के लिए कोई आकर्षण शेष नहीं रहता है । जैनदर्शन में यह अवस्था ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया जैसी है, जिसमें व्यक्ति सत्य या यथार्थ के अभिमुख होता है।
जैनदर्शन के अनुसार पुंवेद-स्त्रीवेद यह अवस्था तृतीय गुणस्थान की है । जिसमें सम्यक् एवं मिथ्या मिश्रित अवस्था है । इस गुणस्थानवी जीव जानता हुआ भी नहीं जानते हुए के समान रहता है । (४) महान व्यक्तित्व (मोनोपर्सनलिटी) - __जीवन में पूर्णता (परफेक्शन) उपलब्ध हो जाने पर व्यक्ति अपने भीतर अनन्त शक्ति का अनुभव करता है । उसे युंग ने मोनोपर्सनेलिटी कहा है । इस शक्ति को ठीक प्रकार से नहीं समझने के कारण, व्यक्ति इसे भी सामूहिक अचेतन की मूल प्रतिमाओं पर प्रक्षिप्त कर देता है, जिसके फलस्वरूप उसके मन में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा आने लगती है। वास्तव में ईश्वर आत्मा का ही प्रक्षेपण मात्र है।
जब व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है तो वह जान लेता है कि वह अतुलित शक्ति उसके ही अन्दर है, जिसे बाहर प्रक्षिप्त करके उसने उसे ईश्वर का रूप दे दिया है और उसी शक्ति की पुनः प्राप्ति के लिए उसके समक्ष घुटने टेक रहा है या समर्पण कर रहा है । तब वह सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा से भी मुक्त होकर चरमावस्था में पहुँचता है।
जब वह भव्यात्मा मुखौटे, छाया एवं स्त्रीवेद-पुरुषवेद को जान लेता है, तो उनके प्रति आकर्षण नहीं रहता, तब उनसे हटकर अपने उत्थान का प्रयत्न करता है । जैनदर्शन के अनुसार महान व्यक्तित्व की अवस्था चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है । जो शक्ति प्रभु में है, वह शक्ति मेरे में है, ऐसे अटल विश्वास के साथ मुखौटे, छाया, स्त्रीवेद-पुरुषवेद (मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्र गुणस्थान) को छोड़कर महान् व्यक्तित्व की अवस्था को पा लेता है । वह समझ लेता है कि परमात्मा का स्वरूप ही वास्तव में आत्मा का स्वरूप है, इसीलिए प्रभु को अपना सर्वस्व अर्पण कर प्रभु भक्ति के द्वारा दुर्भेद मोहनीय कर्म को भेद कर परमात्मपद के निकट (बारहवें गुणस्थान) में पहुँच जाता है। (५) मंडलानुभूति -
जब व्यक्ति सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा से मुक्त हो जाता है, तो उसे आत्म साक्षात्कार होता है। वह असीम शक्ति का अनुभव करता है । उसे पूर्णता का अनुभव होता है। इस पूर्णता का द्योतक मंडल है। मंडल का अर्थ है-वृत्त । सामान्यतया युंग मानते है कि मंडलानुभूति में कोई प्रतिमा नहीं रहती है । यदि कोई प्रतिमा रहती भी है, तो वह पूर्णता का बोध कराती है । वृत्त की प्रतिमा एक ऐसी ही प्रतिमा है।
मंडलानुभूति की अवस्था में व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त हो जाता है । इस अवस्था में जीवन में अखंडता और एकरूपता प्राप्त हो जाती है । इस अवस्था में व्यक्ति को जब आत्मज्ञान होता है, तब इच्छाओं और कामनाओं की आंधी शान्त हो जाती है । फलस्वरूप व्यक्ति अखण्ड शान्ति को उपलब्ध हो जाता है । इस स्थिति में अनन्त आनन्द मिलता है, क्योंकि आनन्द आत्मा का स्वभाव है। __मंडलानुभूति की अवस्था में व्यक्ति अपने क्षुद्र अहंकार से मुक्त हो पूर्णस्वरूप को उपलब्ध होता है, जो उसकी वास्तविक आत्मा है । यही आध्यात्मिक गवेषणा का चरम लक्ष्य है । युंग आत्मोपलब्धि को ही धर्म मानते है।
जैनदर्शन के अनुसार मंडलानुभूति की अवस्था तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की अवस्था है । जहाँ व्यक्ति ध्यानध्याता-ध्येय के विकल्प क्त होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है और असीम शक्ति, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख एवं अनन्तवीर्य का अनुभव करता है ।
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