Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 519
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... ● नवम अध्याय......{463} जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध के अतिरिक्त आचार्य अकलंकदेव ने ध्यानों के सन्दर्भ में तथा कर्मप्रकृतियों के उदय, उदीरणा आदि के सन्दर्भ में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में न केवल चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश किया है, अपितु उनके स्वरूप विवेचन के साथ-साथ उनका आस्रव और संवर की दृष्टि से अवतरण भी किया है । इसी क्रम में उन्होंने विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के आस्रव और संवर अर्थात् बन्धविच्छेद की दृष्टि से भी विवेचन किया है। आस्रव और संवर को लेकर अकलंकदेव का यह विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा एक नवीनता को प्रदर्शित करता है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका के पश्चात् विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक टीका का क्रम आता है । यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा अकलंकदेव ने और उनकी अपेक्षा विद्यानन्द ने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अल्प ही किया है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में एक या दो स्थानों पर जो गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं, वे एक तो अत्यन्त संक्षिप्त हैं और दूसरे गुणस्थान की दृष्टि से कोई नवीन चर्चा भी प्रस्तुत नहीं करते हैं । I श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र की भाष्य के अतिरिक्त जो दो प्रमुख टीकाएं हैं, उनमें सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाएं ही मुख्य हैं । यह भी सुनिश्चित है कि सिद्धसेनगणि पूज्यपाद देवनन्दी से परवर्ती और अकलंकदेव से कुछ पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश अवश्य उपलब्ध होते हैं । जैसा ि हमने पूर्व में भी निर्देश किया है कि श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट विवेचन सर्वप्रथम आवश्यकचूर्णि और सिद्धसेनगणि की इस टीका में ही उपलब्ध होता है । यद्यपि इनके पूर्व जीवसमास में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश हमें अवश्य उपलब्ध होता है, किन्तु गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की व्यापकता की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि चा जीवसमास हो या आवश्यकचूर्णि अथवा सिद्धसेनगणि की टीका हो, इनमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन षट्खण्डागम, पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका और आचार्य अकलंकदेव की राजवार्तिक टीका की अपेक्षा अत्यन्त अल्प ही है । सिद्धसेनगणि ने सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तृतीय सूत्र की टीका में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का उल्लेख किया है, किन्तु इसका सम्बन्ध ग्रंथिभेद की प्रक्रिया से है, गुणस्थान से नहीं है । इसके पश्चात् प्रथम अध्याय के २६ वें सूत्र की टीका में भी गुणस्थान सम्बन्धी कुछ अवस्थाओं के निर्देश के अतिरिक्त कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । इसी क्रम में उन्होंने आसव, संवर, परिषह, ध्यान और गुणश्रेणियों के विवेचन के प्रसंग में भी गुणस्थानों का अवतरण अवश्य किया है, फिर भी सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति में चौदह गुणस्थानों का एक स्थान पर सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा से सम्यक् रूप से अवगत रहे हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र पर जो दूसरी टीका उपलब्ध होती है, वह आचार्य हरिभद्रसूरि की है । आचार्य हरिभद्र का काल आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनकी इस टीका में भी गुणस्थान शब्द और यथाप्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी कुछ उल्लेख प्राप्त हो जाते हैं, जिसका निर्देश में कर चुके हैं। इन यथास्थान किए गए निर्देशों के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट और विस्तृत विवेचन प्राप्त नहीं होता है । फिर भी उनकी इस टीका के आलोडन - विलोडन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और उसकी प्रमुख श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं के अवलोकन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी कोई स्पष्ट परिचर्चा उपलब्ध नहीं होती है । उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी (पाँचवीं - छठी शताब्दी) अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थानों का विस्तृत और व्यापक विवेचन प्रस्तु करते हैं । उनके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अकलंकदेव के राजवार्तिक और विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक में गुणस्थान सम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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