Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 502
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{448} त्रयोगदर्शन में मन की पांच अवस्थाएँ और गुणस्थान k योगसाधना का लक्ष्य चित्तवृत्तिनिरोध है। योगदर्शन में योग की परिभाषा 'योगः चित्तःवृत्तिनिरोधः' है। योगदर्शन में चित्तवृत्ति-निरोध को इसीलिए साध्य माना गया है कि सारे दुःखों का मूल चित्त विकल्प है और वह राग या आसक्तिजनित है। जब राग भाव होगा तो चित्त विकल्प होंगे और मानसिक तनाव होगा तथा मानसिक तनाव के कारण समाधि को प्राप्त नहीं होगा। समाधि पाने के लिए निर्विकल्प होना आवश्यक है । योगदर्शन में चित्त की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं, वे क्रमशः साधना के विकास क्रम की ही सूचक है। चित्त की ये पांच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं - (१) मूढ़-इस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है, जिससे कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक न रहकर क्रोधादि के द्वारा बुरे कार्यों से जोड़ती है । इस अवस्था में न तो सत्य जानने की जिज्ञासा होती है और न ही धर्म के प्रति रुचि होती है । इसमें अज्ञान और आलस्य की प्रमुखता रहती है । ऐसी अवस्था अविकसित बुद्धि वाले मनुष्यों और पशुओं में देखने को मिलती है। यह अवस्था जैनदर्शन में मिथ्यात्व गुणस्थान के समान है। (२) क्षिप्त-इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है । रजोगुण की प्रबलता के कारण चित्त सदैव चंचल रहता है। सांसारिक विषय वासनाओं में अभिरुचि होने के कारण मन केन्द्रित नहीं रहता । यह क्षिप्त भूमि दैत्य दानवों की होती है । रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण होने पर क्रूरता, कामांधता, लोभ आदि की प्रवृत्तियाँ बढ़ती रहती है और सत्वगुण का संयोग होने पर कभी-कभी तत्व जिज्ञासा और संसार की दुःखमयता का आभास होने लगता है । जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान से ही इस अवस्था की तुलना की जा सकती है, किन्तु यह उस व्यक्ति की अवस्था है जो सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में गिरा है। अतः किसी सीमा तक इसे सास्वादन और मिश्र गुणस्थान से भी तुलनीय माना जा सकता है। . (३) विक्षिप्त-इसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है, किन्तु रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति के कारण सत्वगुण का इनसे संघर्ष चलता रहता है । यह शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है । सत्वगुण की अधिकता की वृत्ति दुःख के साधनों को विशेषतः नष्ट करके, सुख के साधनों में लगी रहती है । वह धार्मिक वृत्ति की ओर उन्मुख होती है, किन्तु रजोगुण के कारण चित्त विक्षिप्त बना रहता है । जैनदर्शन के अनुसार अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से इस अवस्था की तुलना की जा सकती है । यद्यपि सत्वगुण की प्रधानता होने से यह अवस्था पांचवें और छठे गुणस्थानों से कुछ अधिक निकटता रखती है। (४) एकाग्र-चित्त का प्रशस्त विषयों में एकाग्र होना, स्थिर रहना एकाग्र वृत्ति है । यह अवस्था चित्त की एकाग्रता की अवस्था है । जब रजोगुण और तमोगुण चला जाता है, तब चित्त की चंचलता को छोड़कर मन प्रशस्त विषय पर केन्द्रित रहता है । विचार शक्ति में सूक्ष्मता अधिक हो जाती है। जिस वस्तु पर चित्त वृत्ति स्थिर हो जाती है, वह वस्तु उसके वशीभूत हो जाती है। इस भूमि को संप्रज्ञान योग, सबीज समाधि भी कह सकते हैं । इस भूमि की तुलना जैन परम्परा में सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है । (५) निरूद्ध-चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का समाप्त हो जाना निरूद्ध अवस्था कहलाती है। इस अवस्था को असंप्रज्ञान या निर्बीज समाधि भी कहते हैं । इस अवस्था को प्राप्त होने पर साधक का चित्त के साथ सम्बन्ध टूट जाता है और वह अपने स्वस्वरूप को प्राप्त कर लेता है ।४६० इस अवस्था की तुलना जैनशास्त्र में तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान से की जा सकती है। शैवदर्शन की दस भूमिकाएँ और गुणस्थान भारतीय परम्परा में आध्यात्मिक साधना को लेकर शैवदर्शन एक प्रमुख स्थान रखता है । शैवदर्शन के अनुसार व्यक्ति पशु न से किस प्रकार पशुपति (जिन) अवस्था को प्राप्त करता है, इसकी विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध होती हैं । इस चर्चा के विस्तार में न जाकर हम डॉ प्रमिला जैन के षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन के आधार पर 'शिवज्ञान बोध' नामक कृति में आध्यात्मिक विकास की जो दस अवस्थाएं चित्रित हैं, उनकी गुणस्थान की अवधारणा से तुलना प्रस्तुत करेंगे। ___'शिवज्ञान बोध' के अनुसार आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएं हैं, जिन्हें दस कार्य कहा गया है । वे निम्नानुसार है४६० तरादुष्टः स्वरूपेऽवस्थानाम् । - पातंजल योगदर्शन १/३ Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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