Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

View full book text
Previous | Next

Page 507
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. अष्टम अध्याय........{453} (३) विमला - इस अवस्था में बोधिसत्व (साधक) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है । दुःखशीलता के मनोविकार रूप मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसीलिए इसे विमला कहते है । इस अवस्था में पूर्ण रूप से आचरण की शुद्धि होती है । इस भूमि में बोधिसत्व शान्ति-पारमिता का अभ्यास करता है । यह अधिचित शिक्षा है । इस भूमि का लक्षण है ध्यान प्राप्ति, इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है । जैनदर्शन में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है। (४) प्रभाकरी - इस भूमि में साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का साक्षात्कार होता है एवं वह बुद्ध का ज्ञानरुपी प्रकाश लोक में फैलाता है, इसीलिए इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन में अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से की है। (५) अर्चिष्मती - इस भूमि में कलेशावरण और श्रेयावरण का दाह होता है । आध्यात्मिक विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक कलेशावरण और श्रेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार अष्टम गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का रसघात एवं संक्रमण करता है, इसमें साधक वीर्य-पारमिता का अभ्यास करता है। सुदुर्जया - इस भूमि में सत्व-परिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है । यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को दुर्जया कहते हैं । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान-पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है। (७) अभिमुखी - प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिए संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिए बन्धक नहीं रहता । निर्वाण के अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है । इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है । चौथी, पांचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है । जैनदर्शन में इस भूमि को सूक्ष्मसंपराय नामक बारहवें गुणस्थान से तुलना की जाती है ।। (घ) दूरंगमा - इस भूमि में बोधिसत्व एकान्तिक मार्ग से दूर हो जाता है । जैन परिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त अवस्था है, संकल्प शून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है । बोधिसत्व निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है । इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन के अनुसार बारहवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में साधक निर्वाण प्राप्ति के योग्य हो जाता है । (६) अचला - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है । विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में तत्व का साक्षात्कार हो जाता है । यह भूमि तथा अग्रिम साधुमती और धर्ममघा भूमि जैनदर्शन में सयोगीकेवली नाम तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती है। (१०) साधुमती- इस भूमि के बोधिसत्व का हृदय प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है । इस भूमि का लक्षण है प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना । इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं विश्लेषणात्मक अनुभव करनेवाली बुद्धि की प्रधानता होती है । इस अवस्था में बोधिसत्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न होती है। (११) धर्ममेघा-जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है। इस भूमि में बोधिसत्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय कमल पर स्थित दिखायी देते हैं। यह भूमि जैनधर्म के तीर्थंकर के समवसरण रचना के समान प्रतीत होती है। आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थान | आजीवक दर्शन का प्रवर्तक गोशालक माना जाता है । बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय की बुद्धघोष कृत Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566