Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 496
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... सप्तम अध्याय........{444) उपलब्ध नहीं है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि (१) भगवान महावीर ने अर्थरूप में जो उपदेश दिया था, वह शब्द रूप में गणधरों द्वारा गूंथा गया था उसके विश्रृङ्खलित हो जाने के कारण अनेक समस्याएँ हुई, उनमें से एक समस्या आध्यात्मिक विकास के विभिन्न आयामों को निरूपित करने की भी रही है। आध्यात्मिक विकास की जो अवस्थाएँ प्रारंभिक काल में प्रतिपादित रही होगी, उनका उल्लेख करनेवाले प्राचीन ग्रन्थों के अनुपलब्ध होने से यह समस्या उत्पन्न हुई । इसके विपरीत डॉ. सागरमल जैन ने गुणस्थान सिद्धान्त का जो तार्किक एवं प्रमाणोपेत विश्लेषण किया है, वह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि जैन दर्शन में सिद्धान्तों के विकास की प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रही है। उनके इस मत से मैं सहमत भी हूँ, क्योंकि ऐसा ही एक सिद्धान्त अनेकान्तवाद भी है जिसके मूल बीज ही आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध हैं, तथापि उसका सुव्यवस्थित रूप आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है । फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त को अनेकान्त के दार्शनिक विकास की भाँति नहीं देखा जा सकता, क्योंकि इसके व्यवस्थापन का आधार प्राचीन आगम या कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य रहा है। आचारांगनियुक्ति में प्राप्त गुणश्रेणी की गाथाओं के सम्बन्ध में ऐसा डॉ सागरमलजी ने स्वीकार भी किया है कि नियुक्ति में ये गाथाएं किसी प्राचीन कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य से ली गई प्रतीत होती है। प्रस्तुत कृति का पंचम अध्याय आत्मा के आध्यात्मिक विकासक्रम को स्पष्ट करता है । इस अध्याय में डॉ. जैन ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप की चर्चा की है । तथा इसके साथ ही यथाप्रवृत्ति अनिवृत्तिकरण की चर्चा के साथ ग्रंथिभेद को समझाने का प्रयास किया है । षष्ठ अध्याय में गुणस्थानों के स्वरूप को तथा सप्तम अध्याय में गुणस्थान सिद्धान्त और जैन कर्मसिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है । यह समस्त चर्चा हमें प्राचीन साहित्य में भी उपलब्ध होती है । डॉ. सागरमल जैन ने प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर यहाँ उसे हिन्दी भाषा में स्पष्ट करने का प्रयास किया है । यह दोनों अध्याय वस्तुतः विवरणात्मक है और इनका आधार मुख्य रूप से गोम्मटसार और कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ रहे हैं । इस सम्बन्ध में स्वयं उन्होंने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है "मैंने इस अवधारणा को कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में पंडित सुखलालजी संघवी द्वारा दी गई तालिकाओं के आधार पर स्पष्ट किया है।" प्रस्तुत कृति का अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है यह अध्याय निश्चय ही तुलनात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस अध्याय में डॉ. सागरमल जैन ने सर्वप्रथम पंडित सुखलालजी के योगवाशिष्ठ के गुणस्थान सिद्धान्त के साथ तुलनात्मक अध्ययन को आधार बनाकर उसमें प्रतिपादित ज्ञान और अज्ञान की चौदह अवस्थाओं से गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना प्रस्तुत की । इस तुलनात्मक अध्ययन में डॉ. जैन का वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने न केवल योगवाशिष्ठ के आधार पर अपितु बौद्धदर्शन के हीनयान सम्प्रदाय की स्रोतापन, सकृदागामी, अनागामी, अर्हद्भूमि के आधार पर भी गुणस्थान सिद्धान्त की व्यापक चर्चा की है। इसी क्रम में आगे उन्होंने बौद्धदर्शन के माहयान सम्प्रदाय की दस भूमियों के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त का तुलनात्मक व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इसके पश्चात् उन्होंने गीता के सत्व, रज को आधार बनाकर उनके संयोग से चौदह भूमियों की रचना कर गुणस्थान सिद्धान्त का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है । बौद्धर्शन के दोनों सम्प्रदाय तथा गीता के सम्बन्ध में उनका यह विवेचन मौलिक है और इसे उन्होंने आज से लगभग ३५ वर्ष पूर्व अपने जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोधप्रबन्ध में प्रस्तुत किया है । अन्य ग्रन्थों में तलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में हमें जो विवेचनाएं उपलब्ध होती हैं, वे इसी आधार पर प्रतीत होती हैं । इस तुलनात्मक अध्ययन के अन्त में उन्होंने योगदर्शन में चित्त की जो पांच अवस्थाएं प्रतिपादित की है, उनकी तुलना आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा प्रतिपादित आठ योगदृष्टि तथा आचार्य हरिभद्र द्वारा ही योगबिंदु में प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास क्रम की पांच भूमिका से की है। साथ ही उन्होंने पंडित सुखलालजी और प्रोफेसर हार्नले के उल्लेखों के आधार पर आजीविक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ अवस्थाओं की तुलना भी गुणस्थान की अवधारणा से की है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से डॉ. सागरमल जैन ने अति व्यापक और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । चूंकि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से एक स्वतन्त्र अध्याय का लेखन किया जा रहा है । अतः यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा न करके डॉ. सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' के समीक्षात्मक विवरण को यहीं विराम देना चाहेंगे। Jain Education Interational nternational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jain

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