Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{433}
गुणस्थान
भाव
उपशम
क्षायोपशमिक
क्षायिक
।
औदयिक
पारिणामिक
मिथ्यात्व सास्वादन मिश्र अविरति देशविरति प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसंपराय उपशान्तमोहनीय क्षीणमोहनीय सयोगी केवली अयोगी केवली
इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ५८ से ६२ तक जीवों के ५६३ भेदों का निर्देश करके किन गुणस्थानों में जीवों के कितने भेद पाए जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६३ में सात समुद्घातों का निर्देश है । ये सात समुद्घात निम्न हैं - (१) वेदना, (२) कषाय (३) मरण (४) वैक्रिय (५) तैजस (६) आहारक और (७) केवली । इन सात समुद्घातों में से किस गुणस्थान में कितने समुद्घात होते हैं इसकी चर्चा है। गाथा क्रमांक ६५ के उत्तरार्द्ध से लेकर ६६ तक किस गुणस्थान में चार ध्यानों में से कितने ध्यान सम्भव होते हैं, इसका निर्देश है। गाथा क्रमांक ६७ के पूर्वार्द्ध में गुणस्थानों में दंडकों का अवतरण किया गया है। गाथा क्रमांक ६७ के उत्तरार्द्ध में गुणस्थानों में वेदों (कामवासना) का अवतरण किया गया है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादरसम्पराय गुणस्थान तक तीनों वेद होते हैं । शेष दसवें से चौदहवें तक पांच गुणस्थान अवेदी है । कर्मग्रन्थों में उपयोग सम्बन्धी चर्चा में केवलज्ञान और केवलदर्शन में तीनों वेद माने गए हैं, वे द्रव्यलिंग (शरीर रचना) की अपेक्षा से है, भावलिंग की अपेक्षा से नहीं । यह स्पष्टीकरण विचारसार का वैशिष्ट्य है । गाथा क्रमांक ६७ के उत्तरार्द्ध से लेकर ६६ के पूर्वार्द्ध तक चारित्रमार्गणा के सात भेद करके किस गुणस्थान में कौन-सा चारित्र पाया जाता है, इसका निर्देश किया गया है । यहाँ पांच चारित्र के साथ देशविरति चारित्र और अविरति चारित्र को सम्मिलित किया गया है । गाथा क्रमांक ६६ के उत्तरार्द्ध में चौरासी लाख योनियों का निर्देश करके फिर अग्रिम गाथा ७० में किस गुणस्थान में कितनी योनियाँ सम्भव है, यह निर्देश किया गया है। गाथा क्रमांक ७१ में कुल कोड़ी का निर्देश करते हुए मात्र यह कहा गया है कि इसे योनि के समान ही समझ लेना चाहिए । ज्ञातव्य है कि एक योनि में भी कुल सम्भव होते है । गाथा क्रमांक ७१ के उत्तरार्द्ध से ७४ तक ध्रुवबन्धी और अधुवबन्धी, ध्रुवोदयी और अधुवोदयी तथा ध्रुवसत्ता और अधुवसत्ता वाली कर्मप्रकृतियों का गुणस्थानों में अवतरण किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ७५ से ७८ तक सर्वघाती, देशघाती और अघाती कर्मप्रकृतियों का विभिन्न गुणस्थानों में निर्देश किया गया है। गाथा क्रमांक ७६ में पुण्यप्रकृति और पापप्रकृति का निर्देश करके किस गुणस्थान में कितनी पुण्यप्रकृति और पापप्रकृति का बन्ध होता है, इसकी चर्चा की गई है । गाथा क्रमांक ८०, ८१ और २ के पूवार्द्ध तक
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