Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 483
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{431} बृहत् कर्मस्तव आदि प्राचीन (जीर्ण) कर्मग्रन्थ, जिनवल्लभसूरिकृत कर्मग्रन्थों, देवेन्द्रसूरिकृत कर्मविपाकादि कर्मग्रन्थों के आधार पर भगवती, प्रज्ञापना आदि वाक्यों को प्रमाण रूप स्वीकार कर इस ग्रन्थ की रचना की गई है । ग्रन्थ के रचनाकार के रूप में प्राकृत गाथा, संस्कृत टीका और मरूगुर्जर टब्बे तीनों में इन्होंने अपने नाम का उल्लेख किया है । संस्कृत टीका में गणिदेवचन्द्र के रूप में अपने गणिपद का भी उल्लेख किया है । ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम संवत् १७६६ तदनुसार ईस्वी सन् १७३६ कार्तिक सुदी एकम उल्लेखित है । गणि देवचन्द्रजी खरतरगच्छ में मुनि दीपचन्द्रजी के पास दीक्षित हुए । बुद्धिसागरजी के अनुसार श्रीमद् देवचन्द्रजी का जन्म विक्रम संवत् १७२० तदनुसार ईस्वी सन् १६६३ के लगभग होना चाहिए और इनकी दीक्षा विक्रम संवत् १७२५ तद्नसार ईस्वी सन् १६७५ में बारह वर्ष की अल्पायु में हुई । श्रीमद् देवचन्दजी की प्रथम कृतियाँ अष्टप्रकारी पूजा और इक्कीसप्रकारी पूजा विक्रम संवत् १७४३ तदनुसार ईस्वी सन् १६८६ की है। उनका ग्रन्थ रचनाकाल काफी लम्बा है । यदि विचारसार को उनका अन्तिम ग्रन्थ माना जाए, तो लगभग ६३ वर्ष तक वे ग्रन्थ लेखन करते रहे, यह निश्चित है । श्रीमद् देवचन्द्रजी का दीक्षा पर्याय लगभग ७५ वर्ष रहा है । उनका स्वर्गवास विक्रम संवत् १८१० तदनुसार ईस्वी सन् १७५३ में हुआ। बुद्धिसागरसूरिजी ने श्रीमद् देवचन्द्र की गुरु परम्परा को इस प्रकार उल्लेख किया है । खरतरगच्छ के जिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य पुण्यप्रधान उपाध्याय, उनके शिष्य सुमतिसागर उपाध्याय, उनके शिष्य राजसागर उपाध्याय, उनके शिष्य धर्मपाठक, उनके शिष्य राजहंस और दीपचंद हुए । दीपचंद के शिष्य देवचन्द्र हुए । गणि देवचन्द्र की अधिकांश कृतियाँ मरूगुर्जर भाषा में उपलब्ध होती हैं । प्रस्तुत विचारसार प्रकरण को देखने से यह निश्चित होता है कि वे प्राकृत, संस्कृत और मरूगुर्जर - इन सभी भाषाओं में रचना करने में समर्थ रहे हैं। श्रीमद् देवचन्द्र के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त उल्लेख के बाद हम विचारसार प्रकरण के सम्बन्ध में विचार करेंगे। विचारसार प्रकरण मुख्यतः दो विभागों में विभाजित है । प्रथम भाग को श्रीमद् देवचन्द्र ने स्वयं ही गुणस्थान शतक - ऐसा नाम दिया है । इस गुणस्थान शतक की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने 'गुणठाणसयं देवचन्देण'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इस प्रकार गुणस्थान शतक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही माना जा सकता है । विचारसार प्रकरण का दूसरा भाग विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थान की चर्चा करता है । लेखक ने इस विभाग में भी स्वतन्त्र रूप से मंगलाचारण किया है और अन्त में अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है । इसके अन्त में ग्रन्थ रचना का काल तथा नवानगर (जामनगर) के रूप में ग्रन्थ रचना के स्थान का भी उल्लेख है। इसके प्रथम विभाग में १०७ गाथाएं और द्वितीय विभाग में २१३ गाथाएं है । प्रथम विभाग विशद्ध रूप से गणस्थानों की ही चर्चा करता है, जबकि दूसरे विभाग में मार्गणास्थानों की चर्चा है । यद्यपि द्वितीय विभाग में मार्गणास्थानों की चर्चा के प्रसंग में भी विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण तो किया ही गया है । विचारसार प्रकरण का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें ६६ द्वारों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । वे ६६ द्वार कौन-से है, इसका निर्देश बुद्धिसागरजी ने निम्न रूप में किया है - १० बन्धद्वार (मूलप्रकृति बन्ध १, उत्तर प्रकृतिबन्ध १, आठ भिन्नकर्माष्टक बन्ध ८), १० उदयद्वार (मूल प्रकृति उदय १, उत्तर प्रकृति उदय १, आठ भिन्नकर्माष्टक उदय ८), २ उदीरणाद्वार (मूल प्रकृति उदीरणा १ और उत्तर प्रकृति उदीरणा १), १० सत्ता (मूल प्रकृति सत्ता १, उत्तर प्रकृति सत्ता १, आठ भिन्नकर्माष्टक सत्ता ८), जीवभेद (चौदह), १ गुणस्थान नाम (चौदह)१, योग (पन्द्रह)१, उपयोग (बारह)१, लेश्या (छः), २ बन्धहेतु (मूलबन्ध हेतु १, उत्तरबन्ध हेतु १), चार भिन्नबन्धहेतु चतुष्क, १ अल्पबहुत्व, ८ भाव मूलभाव१, उत्तरभाव१, भिन्न भाव१, पांच सान्निपातिक भाव५, २ जीवभेद (मूलभेद और उत्तरभेद) ४ उत्तर मिलने (आनुपूर्वी), १ समुद्घात (आठ), ४ चार ध्यान (चार), १ दंडक (चौबीस), १ वेद (तीन), १ योनि (चौरासी), १ कुल कोटि, ६ ध्रुवबन्धी, अध्रुवबन्धी, ध्रुवोदयी, अधुवोदयी, ध्रुवसत्ता, अधुवसत्ता प्रकृतियाँ, ३ सर्वघाती, देशघाती, अघाती, ४ पुण्य, पाप, परावर्तमान, अपरावर्तमान प्रकृतियाँ, ४ क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी, जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी (प्रकृतियाँ), ८ आठों कर्मों के आठ भंग द्वार, ४ आसव, संवर, निर्जरा और बन्ध द्वार इस प्रकार अंकों में १० + १० + २ + १० + १ + १+१+१+१+ २ + ४ +१+ ८+२+४+१+४+१+१+१+१+६+३+४+४+६+ ४ = ६६ द्वारों का वर्णन है । श्रीमद् देवचन्द्रकृत विचारसार प्रकरण के गुणस्थान शतक में १०७ गाथाओं में गुणस्थानों के सम्बन्ध में विवचेन उपलब्ध Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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