Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
सप्तम अध्याय.......{436} तो हमें कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु पिता के साथ दीक्षित होने से इतना तो निश्चित है कि वे किशोर अवस्था में दीक्षित हुए • होंगे । उनकी दीक्षा चैत्र शुक्ल पंचमी विक्रम संवत् १६४३ तदनुसार ईस्वी सन् १८८७ में हुई। यह ग्रन्थ उन्होंने अपनी मुनि अवस्था में ही लिखा था । यद्यपि इसके लेखन संवत् का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है; किन्तु इसका प्रकाशन ईस्वी सन् १६१५ में हुआ, अतः यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही लिखा गया होगा । आचार्य अमोलकऋषिजी आगमों के गम्भीर अध्येता थे, इन्होंने सर्वप्रथम स्थानकवासी परम्परा में मान्य ३२ आगमों का हिन्दी अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करवाया था । आगमों के साथ यह ग्रन्थ भी दक्षिण हैदराबाद में प्रकाशित हुआ है । यद्यपि यह ग्रन्थ अनेक ग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है, फिर भी इसके मुख्य आधार तिलोकऋषिजी कृत ४५ गुणस्थान द्वारों का यंत्र और नागचन्द्रजी महाराज द्वारा प्राप्त गुणस्थान आरोहण शतद्वारी यंत्र रहे हैं । इसके अतिरिक्त इन्होंने कर्मग्रन्थों तथा गोम्मटसार के जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड से भी कुछ द्वारों को ग्रहण किया है । यह उल्लेख ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है। आचार्य श्री ने उस प्रस्तावना में स्वयं यह भी लिखा है कि प्रारम्भ में उन्होंने गुणस्थान आरोहण शतद्वारी के नाम से एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। पुनः विचारसार प्रकरण जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं, उससे ६४ द्वारों का संग्रह किया गया और अन्त में कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार से कुछ द्वारों को और नागचन्द्रजी स्वामी द्वारा प्रेषित यंत्र सम्मिलित कर तथा कुछ स्वकल्पित द्वारों को मिलाकर गुणस्थान आरोहण शतद्वारी नामक यह ग्रन्थ पूर्ण किया ।
गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से २५२ द्वारों का वर्णन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ ही है । इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण विषयवस्तु को यदि सार रूप में भी प्रस्तुत करें, तो प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का आकार अत्यधिक विस्तृत हो जाएगा। अतः यही समुचित होगा कि आचार्य अमोलकऋषिजी ने जो २५२ द्वारों का यंत्र या सूची तैयार की है उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर दिया जायेगा । इसके आधार पर संक्षिप्त रूप से विषय को समझने की सुविधा होगी, क्योंकि इसमें प्रतिपादित अधिकांश विषय षट्खण्डागम, पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार और विचारसार प्रकरण में समाहित है । अतः हम परिशिष्ट क्रमांक- १ पर उनके द्वारा प्रस्तुत २५२ द्वारों की तालिका को भाषा की दृष्टि से परिशोधित कर प्रस्तुत कर रहे हैं ।
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इस प्रकार प्रस्तुत कृति गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में व्यापक दृष्टि से विचार प्रस्तुत करती है । इस कृति में २५२ द्वारों गुणस्थान सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत किया गया है और इस प्रकार गुणस्थान के सम्बन्ध में जिन-जिन दृष्टियों से विचार सम्भव हो सकता है, उन्हें संग्रहित कर दिया गया है । जहाँ तक प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा का सम्बन्ध है, वह लोकभाषा मिश्रित हिन्दी है । भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ आज बहुत ही परिमार्जन की अपेक्षा रखता है । आचार्य अमोलकऋषिजी ने इस ग्रन्थ को अपने युग की प्रचलित एवं विभिन्न लोकबोलियों से प्रभावित हिन्दी भाषा में ही रचित किया है । विषयवस्तु की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी भाषा की दृष्टि से इसका परिशोधन एवं सम्पादन आवश्यक है । जब भी इस ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन हो, तब प्रकाशकों को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए । ग्रन्थ में मुद्रण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ भी है, जिसका परिमार्जन भी आवश्यक है । इन सब कमियों के बावजूद भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में आचार्य श्री का जो महत्वपूर्ण अवदान है, उसे नहीं भुलाया जा सकता है । सम्भवतः गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा को लेकर तत्कालीन हिन्दी भाषा में लिखा गया यह ग्रन्थ आज भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है ।
गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में वर्तमानकालीन लेखकों में हमें चार ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । एक आचार्य श्रीनानेश द्वारा लिखित एवं सुरेश सिसोदिया द्वारा संपादित 'गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण', दूसरा आचार्य जयन्तसेनसूरिजी द्वारा रचित 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता' तथा तीसरा डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' है । इनके अतिरिक्त डॉ. प्रमिला जैन का शोधप्रबन्ध 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है । हम इनके सम्बन्ध में क्रमशः विचार करेंगे ।
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