Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{427}
श्लोक क्रमांक १० में सास्वादन गुणस्थान के कारणों की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि उपशम सम्यक्त्व से पतित होना ही सास्वादन गुणस्थान का कारण है । ग्यारहवें और बारहवें श्लोक में सास्वादन गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए यह • बताया है कि सम्यक्त्वरूपी शिखर से गिरते हुए जब तक मिथ्यात्वरूपी भूमि का स्पर्श नहीं करते हैं उसके मध्य का छ: आवलिका जितना काल सास्वादन गुणस्थान कहा जाता है । सम्यक्त्व का आस्वाद रहने से अथवा मिथ्यात्व का स्वीकार नहीं होने से इसे सास्वादन गुणस्थान कहा गया है। ____ १३३, १४ वें, और १५ वें श्लोक में मिश्र गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन अनेक दृष्टांतों के आधार पर किया गया है। अग्रिम १६ वें और १७ वें श्लोकों में भी गुणस्थान के स्वरूप का निर्वचन है । इसमें कहा गया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय या उपशम से तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदय से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । यहाँ सम्यक्त्व के लक्षणों में कृपा, प्रशम, संवेग, निर्वेद और आस्तिक्य का उल्लेख हुआ है । यहाँ अनुकम्पा के लिए कृपा शब्द का उल्लेख हुआ है । संवेग के लक्षणों का क्रम भी परम्परागत रूप से भिन्न रूप में उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि चतुर्थ गुणस्थानवी जीव देव, गुरू और धर्म की भक्ति तो करता है, किन्तु व्रतादि ग्रहण नहीं करता है।
श्लोक क्रमांक २४ और २५ में देशविरति गुणस्थान के स्वरूप का उल्लेख हुआ है । कहा गया है कि प्रत्याख्यानीय कषायों के उदय से देशविरति गुणस्थान होता है । इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष होता है । इस गुणस्थान की विशेषताओं की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इस गुणस्थान में आर्त और रौद्र ध्यान मन्द होता है और धर्मध्यान मध्यम होता है । श्लोक क्रमांक २६ में बताया गया है कि प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है।
उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक २७ से ३१ तक प्रमत्तसंयत गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन हुआ है। इसमें कहा गया है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नोकषायों की उपस्थिति के कारण इस गुणस्थान में आर्तध्यान की मुख्यता होती है, उपलक्षण से रौद्रध्यान भी होता है । आज्ञापालन के रूप में धर्मध्यान होता है, किन्तु प्रमाद के कारण वह गौण रहता है । यहाँ रत्नशेखरसूरि
ते हैं कि जब तक जीव में प्रमाद रहा हआ है: तब तक उसे निरालम्ब धर्मध्यान की प्राप्ति नहीं होती है । इस गणस्थान में आज्ञा-आलम्बन रूप धर्मध्यान ही होता है. निरालम्ब धर्मध्यान का अभाव रहता है । यहाँ आचार्य रत्नशेखरसरि यह भी कहते हैं कि जो इस गुणस्थान में निरालम्ब, निश्चल धर्मध्यान को स्वीकार करते है, वे मोहग्रसित ही है । इस प्रकार उन्होंने छठे गुणस्थान में निरालम्ब धर्मध्यान का स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है।
श्लोक क्रमांक ३२ से लेकर ३६ तक पांच श्लोकों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का विवेचन हुआ है । इसमें बताया गया है कि संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय के मंद उदय से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति होती है । ध्यान के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इसमें धर्मध्यान ही मुख्य रूप से होता है । यहाँ धर्मध्यान के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-ऐसे चार विभागों का भी उल्लेख हुआ है। रत्नशेखरसूरि के अनुसार इस गुणस्थान में शुक्लध्यान गौण रूप में ही होता है, मुख्यवृत्ति से नहीं। रत्नशेखरसूरि ने ३६ वें श्लोक में इस गुणस्थान में सामायिकादि छः आवश्यकों का निषेध ही कहा है। उनका कहना है कि सामायिकादि छः आवश्यक व्यवहार क्रियारूप है । यह गुणस्थान विशेषरूप से सद्ध्यान से युक्त होने के कारण निश्चय को ही प्रधानता देता है । ध्यान की स्थिति में व्यवहार रूप क्रिया सम्भव नही है । ध्यान भावविशुद्धता और आत्म-सजगता में ही फलित होता है।
इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ३७ से ४० तक आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के गुणस्थानों में आत्मा की क्या स्थिति होती है ? इसकी चर्चा है । अपूर्व गुणों की प्राप्ति के कारण आठवाँ गुणस्थान अपूर्वकरण कहा जाता है । जब साधक आकांक्षा आदि संकल्पों से रहित होकर निश्चल भाव से एकाग्रतापूर्वक ध्यान में रमण करता है, तो उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते है । इसमें देहासक्ति रूप सूक्ष्म लोभ की सत्ता रहने पर इस गुणस्थान को सूक्ष्मकषाय (सूक्ष्म सम्पराय) कहा जाता है । मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह गुणस्थान है । मोहनीय कर्म का क्षय होने से बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान है।
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