Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
षष्टम अध्याय........(406}
जीवसमास के षष्ठ अन्तरद्वार में गाथा क्रमांक २५७, २५८ एवं २५६ - इन तीन गाथाओं में गुणस्थानों का अन्तर- काल बताया है। मिथ्यात्व का त्याग करके पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त से कुछ कम, दो छासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम है। अन्य कुछ विचारकों के अनुसार इससे भी कम है। तात्पर्य यह है कि अन्य आचार्य मिथ्यात्व का उत्कृष्ट विरहकाल दो छासठ सागरोपम से अन्तर्मुहूर्त कम मानते हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती औपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त जीव क्रमशः अनुगमन करता हुआ देशविरत, प्रमत्तसंयत, सर्वविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय तथा उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दर्शन का वमन कर पुनः उसे अवश्य प्राप्त करते हैं । सम्यक्त्व का वमन कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्धपुद्गल परावर्तन है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक सम्यग्दर्शन का अनुगमन करनेवाला जीव इन सभी गुणस्थानों को छोड़ने के बाद अर्धपुद्गल परावर्तन कालपर्यन्त संसार परिभ्रमण कर पुनः उन्हें अवश्य प्राप्त करता है। क्षपक, क्षीणमोह तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का अन्तर- काल नहीं होता है, क्योंकि इन सभी जीवों का पतन नहीं होता है।
गाथा २५८ में कहा है कि सास्वादन गुणस्थान और औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। शेष सभी अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती सभी जीव का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों को अन्तरकाल नहीं होता है, नियम से वे आगे ही बढ़ते हैं, उनका पतन नहीं होता है।
गाथा २५६ में कहा है कि द्वितीय सास्वादन गुणस्थानवर्ती, तृतीय मिश्र गुणस्थानवर्ती तथा संमूर्च्छिम मनुष्यों का सम्पूर्ण लोक में पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक पूर्णतः अभाव हो सकता है । उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष-पृथक्त्व ही जानना चाहिए। लोक में कभी-कभी अधिकतम छः म पर्यन्त क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें, नवें, दसवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों का अभाव होता है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल भी उत्कृष्ट से छः मास पर्यन्त होता है। मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तर- काल नहीं होता है। ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव लोक में सदा होते हैं। संमूर्च्छिम मनुष्य में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है।
जीवसमास के षष्ठ अन्तरद्वार की २६२ वीं गाथा में बताया है कि सम्यक्त्व स्वीकार करनेवालों का सात दिन रात्रि तक का, देशविरति चारित्र (देशविरति गुणस्थान) स्वीकार करनेवालों का चौदह दिन-रात्रि तक का तथा सर्वविरति चारित्र ( प्रमत्तसंयत गुणस्थान) स्वीकार करनेवालों का पन्द्रह दिन-रात्रि का उत्कृष्ट विरहकाल होता है।
जीवसमास के अष्टम अल्प - बहुत्व द्वार की गाथा क्रमांक २७७ से २८१ तक इन पांच गाथाओं में गुणस्थानों में जीवों की संख्या का अल्प-बहुत्व बताया गया है। गुणस्थानों की अपेक्षा से उपशमक तथा उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या सबसे कम है। उनसे क्षपक तथा क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव अधिक है, उनसे अधिक जिन अर्थात् सयोगीकेवली तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव है, उनके अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव है, उनसे अधिक प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव है, उनसे अधिक देशविरति गुणस्थानवर्ती जीव, उनसे अधिक सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव, उनसे अधिक मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव है और उनसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव क्रमशः असंख्यगुणा अधिक होते हैं। उनसे सिद्ध अनन्तगुणा अधिक हैं तथा सिद्धों से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अनन्तगुणा अधिक होते हैं।
सास्वादन गुणस्थानवर्ती देव तथा नारकी जीव सबसे कम हैं, मिश्रगुणस्थानवर्ती उनसे संख्यातगुणा अधिक होते हैं, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उनसे असंख्यातगुणा अधिक हैं और मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती उनसे असंख्यातगुणा अधिक है।
देशविरति गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सबसे कम हैं, उनसे सास्वादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच असंख्यातगुणा अधिक है, उनसे मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणा अधिक हैं, उनसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणा अधिक हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव अनन्तगुणा हैं।
मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष तेरह गुणस्थानों में जीवों की संख्या उलट क्रम से संख्यातगुणा अधिक-अधिक होती जाती हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या उनसे असंख्यगुणा अधिक होती है ।
इस प्रकार जीवसमास नामक इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की व्यापक रूप से चर्चा हुई है। जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया था कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान की चर्चा की अपेक्षा से प्रथम और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उपर्युक्त विवेचन में
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