Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 462
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ षष्टम अध्याय....{412} किया है वह गुणस्थानों की अपेक्षा से किया हो, यह कहना कठिन है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविर, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये सभी अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त के अतिरिक्त भी जैन परम्परा में बहु चर्चित रही है और इनका उल्लेख आगम काल से ही मिलता है । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन प्रकरणों में इन अवस्थाओं का नाम आया है, वे प्रत्यक्ष स्थान से सम्बन्धित नहीं है। अतः इन अवस्थाओं का नामोल्लेख यहाँ प्रसंगवशात् ही समझना चाहिए। पंचाशक प्रकरण में गुणस्थान से सम्बन्धित इन नामों के उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है । पंचसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान : श्वेताम्बर जैन परम्परा में पंचसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है । सामान्यतया साधु-साध्वी इसका प्रतिदिन स्वाध्याय करते हैं । यह मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निबद्ध है, किन्तु इसके कर्ता कौन हैं, यह एक विवादास्पद विषय है । मुनि जम्बूविजयजी के अनुसार कुछ प्रतियों में इसके लेखक के रूप में 'चिरंतनाचार्य विरचितम् ' ऐसा उल्लेख मिलता है, किन्तु इसमें चिरंतन शब्द किसी व्यक्ति का सूचक है मात्र प्राचीन आचार्य इस भाव का सूचक है; यह स्पष्ट नहीं होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचसूत्र की टीका में उसके लेखक के नाम का उल्लेख नहीं किया है। पंचसूत्र मूल में सांख्य, बौद्ध आदि मतों का उल्लेख न होने से इसे दर्शन युग की ही कृति मानी जाना चाहिए । यदि इसके कर्ता टीकाकार से भिन्न हैं, तो वे आचार्य हरिभद्रसूरि के निकट पूर्ववर्ती ही कोई आचार्य रहे होंगे । मुनि शीलचंद्रविजयश्री आदि की मान्यता यह है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ही इस ग्रन्थ के संकलन कर्ता और टीकाकार दोनों ही हैं । प्रमाणों के अभाव में हम भी इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कर पाने या कह पाने में असमर्थ हैं । जहाँ तक हमारे विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, मूल ग्रन्थ में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द देखने को नहीं मिला है । मात्र आचार्य हरिभद्रसूरि कृत टीका में पृष्ठ - १६ पर 'मिथ्यादृष्टिनामपि गुणस्थानत्वाभ्युपगमात् ' इतना उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त टीका में भी कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिला है । इससे इतना ही अवरोध होता है कि प्रस्तुत पंचसूत्र के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं। इस एकमात्र उल्लेख के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त उनके उपदेशपरक ग्रन्थों में आत्मानुशासन, लोकतत्वनिर्णय, धर्मबिन्दु, संबोध प्रकरण, उपदेशपद, पंचवस्तुक, सावयपण्णत्ति में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन परिलक्षित नहीं होता है । आचार्य हरिभद्र के निम्न दार्शनिक ग्रन्थ दर्शनजगत में विशेष चर्चित है - षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्त जयपताका और अनेकान्तवादप्रवेश, किन्तु इन सभी ग्रन्थों में किसी भी प्रसंग में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन हमें देखने को नहीं मिलता है । T इन उपदेशपरक और दार्शनिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र ने योग सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे हैं । उन्होंने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में योगविंशिका, योगशतक, योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु - ऐसे चार ग्रन्थ लिखे हैं । ये चारों ग्रन्थ योगसाधना से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार इनका सम्बन्ध व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा से भी है। फिर भी इन ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु योगशतक पर उनकी स्वोपज्ञ टीका में ३६ वीं गाथा की टीका में गुणस्थान शब्द के उल्लेख के साथ ही विस्तृत चर्चा की गई है । इसी प्रकार योगशतक की ४२ वीं गाथा की टीका में भी उन्होंने गुणस्थान का निर्देश किया है । मात्र यही नहीं ४४ वीं गाथा में भी गुणठाण शब्द का प्रयोग किया है और उसकी टीका गुणस्थान का विशेष विवेचन किया है। योगदृष्टिसमुच्चय २४ के मूल - श्लोक क्रमांक १८२ में श्रेणी सम्बन्धी विवेचन करते हुए अपूर्वकरण का उल्लेख हुआ है । ३८२ पंचसूत्र, हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : जंबुविजयजी, प्रकाशक : भारतीय संस्कृति संस्था रूपनगर, दिल्ली ३८३ योगशतक, लेखकः हरिभद्रसूरिजी, संस्कृत टीका: यशोविजयजी गणी, सम्पादक : अभयशेखर विजयगणी, प्रकाशन : दिव्यदर्शन ट्रस्ट - ३६, कालिकुण्ड सोसायटी, धोलका-३८७८१० ३८४ योगदृष्टिसमुच्चय, वहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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