Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
षष्टम अध्याय........{421}
है कि यदि उसने मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय नहीं किया है, तो वह पुनः अनन्तानुबन्धी का बन्ध कर सकती है, क्योंकि जब तक मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता है, तब तक अनन्तानुबन्धी के बन्ध की पुनः संभावना रहती है ।
परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोष में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की ४३ वीं गाथा की टीका में पंचवस्तुक का सन्दर्भ देते हुए यह प्रश्न उठाया है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल देशोनपूर्वकोटि माना गया है, अर्थात् पूर्वकोटि से कुछ कम माना गया है । उसमें कम से कम तात्पर्य आठ वर्ष की दीक्षा योग्य वय को लेकर है। यहीं यह प्रश्न उठाया गया है कि आठ वर्ष की उम्र के पूर्व देशविरति या सर्व विरति अर्थात् श्रावक या मुनि के व्रतों का ग्रहण हो सकता है या नहीं हो सकता है ? इसी प्रसंग में आचार्य राजेन्द्रसूरिजी ने पंचवस्तुक के भगवान वज्रस्वामी के जीवनवृत्त को प्रस्तुत किया है । यह माना जाता है कि वज्रस्वामी छः माह की अवस्था में ही षट्जीवनिकाय के प्रति संयमशील बने । आचार्य राजेन्द्रसूरिजी का मानना है कि वज्रस्वामी का यह कथानक आश्चर्य रूप में ही मानना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में देशविरति या सर्वविरति के ग्रहण करने योग्य आयु आठ वर्ष की मानी गई है । अतः गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में देशविरति और सर्वविरति दोनों के लिए आठ वर्ष की आयु आवश्यक मानकर ही विवेचना की गई है।
परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोष में षड्शीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ५३ वीं गाथा की टीका में 'चतुः' (चउ) शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए यह बताया है कि यहाँ मिथ्यात्व से लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि तक के चार गुणस्थानों का ग्रहण होता है । इसके प्रमाण में आचार्य हेमचन्द्र के हेमशब्दानुशासन का सूत्र ‘अतोऽनेकस्वरात्' ७/२/६ प्रस्तुत किया गया
___ इसी प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोष में षड्शीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४८ वीं गाथा की टीका में गुणस्थानों में उपयोग का अवतरण करते हुए 'यति' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि जो सर्वसावध कार्यों से विरत है, वह यति है । ऐसा आचार्य हेमचन्द्र के शब्दानुशासन के 'अभ्रादिभ्य' नामक सूत्र से ७/२/४६ से सिद्ध किया गया है । आगे इसे अधिक स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि प्रमत्तसयंत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह-इन सात गुणस्थानों में यह लक्ष्य घटित होता है, क्योंकि ये सभी गुणस्थानवी जीव यति कहे जाते हैं।
जहाँ तक इस समग्र विवेचन के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी ने इस विवेचन के अन्त में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं को लेकर हरिविजयसूरि और विमलहर्षगणि में जो प्रश्नोत्तर हुए, उसका भी निर्देश किया है । इसमें विशेष विवेचन इस बात को लेकर है कि मुनि का छठे गुणस्थान से सातवें और सातवें गुणस्थान से पुनः छठे गुणस्थान में आवागमन क्यों होता रहता है ? इसके उत्तर का सार इतना ही है कि अध्यवसायों के वैचित्र्य के कारण ही मुनिगण छठे और सातवें गुणस्थान में आवागमन करते है।
इस कोषग्रन्थ का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ आदि में जो गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध हैं, उन्हें यहाँ साररूप में एक ही स्थान पर प्रस्तुत कर दिया गया है । इसका लाभ यह है कि जन सामान्य एक ही स्थान पर उस समग्र विवेचन को देख सकते हैं, किन्तु कठिनाई एक ही है कि इस ग्रन्थ में विषयों का प्रस्तुतिकरण मूल प्राकृत गाथाओं तथा उनकी संस्कृत टीकाओं के रूप में ही हुआ है । अतः इन भाषाओं को जाननेवाले व्यक्ति ही इनका लाभ उठा पाते हैं । वर्तमान युग में हिन्दी भाषा-भाषी जनसाधारण उसके लाभ से वंचित रह जाता है । भविष्य में यदि इस ग्रन्थ का अनुवाद के साथ प्रकाशन हो, तो यह ग्रन्थ जो आज विद्वान भोग्य बना हुआ है, वह जन भोग्य भी बन सकेगा।
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