Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{423} आदि की भी विशेष रूप से चर्चा की गई है । इसी चतुर्थ कर्मग्रन्थ की भूमिका में आपने गुणस्थानों के विशेष स्वरूप पर प्रकाश डाला है तथा विशेषावश्यकभाष्य आदि मूल ग्रन्थों के आधार पर गुणस्थानों में आध्यात्मिक विकास किस क्रम से और किस रूप से होता है, इसका विवेचन किया है । इसमें लोकप्रकाश के आधार पर ग्रंथिभेद की विशेष रूप से चर्चा की है और इसी चर्चा के प्रसंग में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का वर्णन आपने किया है। यहाँ पर आपने आध्यात्ममतपरीक्षा आदि ग्रन्थों के आधार पर बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा का विवेचन करते हुए ये तीनों भूमिकाएं गुणस्थानों से किस प्रकार सम्बन्धित है, इसका विशेष रूप से विवेचन किया है । इस भूमिका के अन्त में गणस्थान सिद्धान्त को लेकर विभिन्न दर्शनों से तलनात्मक विवेचन भी प्रस्तत किया है। विशिष्ट रूप से आपने योगवाशिष्ठ, पातंजलि योगसूत्र को लेकर इस संबन्ध में विस्तृत चर्चा की है। चूंकि हम यह तुलनात्मक अध्ययन अग्रिम अध्याय में प्रस्तुत कर रहे हैं, अतः यहाँ विस्तृत विवेचन करना आवश्यक नहीं समझते, किन्तु अन्य दर्शनों के साथ गुणस्थान सिद्धान्त की तुलनात्मक विवेचना की दृष्टि से यदि किसी व्यक्ति ने शोधपूर्ण कार्य किया है, तो पं. सुखलालजी ने किया है । इसके अतिरिक्त आपने आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजयजी के द्वारा वर्णित आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की तुलना भी गुणस्थान सिद्धान्त के साथ की है । इस प्रकार पं. सुखलालजी ने चाहे गुणस्थान के सन्दर्भ में स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना न की हो, किन्तु इस सम्बन्ध में उनका जो चिंतन है, वह निश्चित ही आधुनिक युग के परवर्ती लेखकों के लिए मार्गदर्शक है । उनके द्वारा लिखी कर्मग्रन्थों की ये प्रस्तावनाएं दर्शन और चिंतन०५ नामक ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में उपलब्ध हैं।
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आचार्य देवेन्द्रमुनिजी कृत कर्मविज्ञान में गुणस्थान सिद्धान्त आचार्य देवेन्द्रमुनिजी स्थानकवासी परम्परा में श्रमणसंघ के तृतीय आचार्य रहे हैं । आपका जन्म उदयपुर के एक सम्पन्न । परिवार में दिनांक ७/११/१६३१ को हुआ था । आपने अपनी माता और भगिनियों के साथ उपाध्याय पुष्करमुनिजी के सान्निध्य में लगभग वर्ष की अवस्था में ही मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं तथा आगम, न्याय, व्याकरण, दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन किया और जैन विद्या के विविध पक्षों पर विपुल साहित्य का सृजन किया । आपकी इस विद्वता के आधार पर ईस्वी सन् १६६३ में उदयपुर में आपको श्रमण संघ के तृतीय आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया । आपकी साहित्य साधना विपुल है । छोटे बड़े ३०० से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन और लेखन आदि कार्य आपने किया है। आपकी इस विपुल साहित्य की साधना के क्रम में आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने कर्मविज्ञान ०६ नामक ग्रन्थ को नौ भागों में प्रकाशित किया है। इसमें लगभग पांच हजार पृष्ठों में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना है । कर्मविज्ञान नामक इस कृति को गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में तो स्थान नहीं दिया जा सकता है, किन्तु कर्मसाहित्य में जो गुणस्थान साहित्य सम्बन्धी चर्चा है, उसकी दृष्टि से हिन्दी भाषा में रचित कर्मविज्ञान का पांचवाँ भाग महत्वपूर्ण माना जा सकता है ।।
__इस ग्रन्थ में जीवस्थानों में गुणस्थान नामक नवें अध्याय में, मार्गणास्थानों में गुणस्थान नामक बारहवें अध्याय में, मोह से मोक्ष तक की यात्रा की चौदह मंजिलें नामक तेरहवें अध्याय में, गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान नामक चौदहवें अध्याय में, विविध दर्शनों में आत्म विकास की क्रमिक अवस्थाएं नामक पन्द्रहवें अध्याय में, गुणस्थानों में जीवस्थान नामक सोलहवें अध्याय में, गुणस्थानों में बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा नामक सत्रहवें अध्याय में तथा उर्ध्वारोहण के दो मार्ग नामक उनतीसवें अध्याय में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इस कृति में गुणस्थान सम्बन्धी यह चर्चा २०० पृष्ठों से अधिक है । इस रूप में इसे गुणस्थानों के सन्दर्भ में एक स्वतन्त्र कृति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इसमें सर्वप्रथम ४०५ दर्शन और चिंतन, भाग-२, पृ. २४५ से २६६, प्रका. पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात, विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद ४०६ कर्मविज्ञान, लेखक : आचार्य देवेन्द्रमुनि, प्रकाशनः श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर (राज.) वि.सं. २०५०
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