Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{413} इसकी स्वोपज्ञ टीका में उन्होंने प्रमत्तसंयत गुणस्थान का भी उल्लेख किया है । योगदृष्टिसमुच्चय में इसके अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशेष विवेचन हमें उपलब्ध नहीं होता है।
योगबिन्दु२८५ में श्लोक क्रमांक ३७६ में संपराय का उल्लेख है, किन्तु इसकी मुनिचन्द्रसूरि की वृत्ति में इसे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का निर्देश किया है । इसी क्रम में योगबिन्दु के श्लोक क्रमांक ४२१ में असम्प्रज्ञातसमाधि का विवेचन है । यहाँ भी मूल में तो गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है । मुनिचन्द्रसूरि ने अपनी वृत्ति में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का उल्लेख अवश्य किया है । पुनः योगबिन्दु के श्लोक क्रमांक ४६३ की मुनिचन्द्रसूरि की वृत्ति में भी ‘अविरतसम्यग्दृष्ट्यिादिगुणस्थानक्रमेण' कहकर गुणस्थानों का निर्देश किया है।
यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं । उन्होंने अपनी तत्त्वार्थसूत्र की टीका और पंचसूत्र की टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थान का निर्देश किया है, जिसका उल्लेख पूर्व में कर चुके हैं, फिर भी यह आश्चर्यजनक ही है कि ये यथास्थान कुछ संकेतों के अतिरिक्त अपने इस विपुल साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत विवेचन प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं।
आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान ____ दिगम्बर परम्परा के आध्यात्मिक साधनापरक ग्रन्थों में ज्ञानार्णव का महत्वपूर्ण स्थान है । ज्ञानार्णव८६ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय तो ध्यानसाधना ही है, किन्तु प्रसंगानुसार उसमें द्वादश अनुप्रेक्षा, पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, इन्द्रिय और कषायजय आदि का भी उल्लेख हुआ है । इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य शुभचंद्र माने गए हैं । आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में अपने सम्बन्ध में कहीं कोई परिचय नहीं दिया है, किन्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति के पश्चात् उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों का निर्देश दिया है । इसमें समन्तभद्र, देवनन्दी, अकलंक और जिनसेन का उल्लेख है । जिनसेन का काल ईस्वी सन् ८६८ माना जाता है, अतः यह निश्चित है कि शुभचंद्र का समय ईसा की नवीं शताब्दी के पश्चात् ही कहीं हो सकता है । विद्वानों ने इनका काल ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास निर्धारित किया है । ज्ञानार्णव में ध्यान सम्बन्धी जो चर्चा है उसमें पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत आदि ध्यानों की तथा पृथिवी आदि भावनाओं की जो चर्चा है, वह शुभचंद्र के पूर्व जैनग्रन्थों में कहीं उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु आचार्य हेमचंद्र ने अपने योगशास्त्र में इनका उल्लेख किया है । हेमचंद्र का काल ईसा की बारहवीं शताब्दी है, अतः शुभचंद्र उनसे पूर्व ही हुए है । इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर हम केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि शभचंद्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान सिद्धान्त की क्या स्थिति है ? यह तो स्पष्ट है कि शुभचंद्र के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में उपलब्ध था और वे उससे सुपरिचित भी रहे हैं, क्योंकि उन्होंने ज्ञानार्णव के छठे सर्ग के पच्चीसवें श्लोक में चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है और यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीवों को चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणास्थानों और चौदह गुणस्थानों में पूर्णतया श्रद्धा रखना चाहिए। इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि शुभचंद्र न केवल गुणस्थान की अवधारणाओं से सुपरिचित थे, अपितु मार्गणास्थानों और जीवस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी वे जानते थे । ज्ञानार्णव में समभाव के स्वरूप का चित्रण करते हुए उन्होंने उपशान्तमोह और क्षीणमोह-इन दो अवस्थाओं का चित्रण किया है, जो गुणस्थानों से ही सम्बन्धित है।३८८ इसी प्रकार आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि आर्तध्यान प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सम्भव हैं। मात्र यही नहीं पच्चीसवें सर्ग के अड़तीसवें और उनचालीसवें श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान में आर्तध्यान के चारों ही भेद सम्भव होते हैं, किन्तु छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान को छोड़कर शेष तीन ३८५ योगबिन्दु, वही। ३८६ ज्ञानार्णव ३८७ चतुर्दशसमासेषु मार्गणासु गुणेषु च ।
ज्ञात्वा संसारिणो जीवाः श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिभिः ।।
ज्ञानार्णव सर्ग-१श्लोक-२५ (शुभचंद्र, परमश्रुत प्रभावकमण्डल अगास, संस्करण पंचम २०३७) ३८८ सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजंगम् ।
वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवो त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २३ श्लोक नं.-२६
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