Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
षष्टम अध्याय........1415) उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इसके २४५ वें श्लोक की आचार्य प्रभाचन्द्र की टीका में यह बताया गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । मिश्र गुणस्थान में बन्ध और निर्जरा दोनों ही समान रूप से होती है, किन्तु क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में स्थिति और अनुभागबन्ध का अभाव होकर मात्र निर्जरा ही होती है । इस प्रकार आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी किंचित् सन्दर्भ प्राप्त होता है।
नआचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अनुल्लेख k
आचार्य हेमचन्द्र आचार्य हरिभद्र के पश्चात् दूसरे ऐसे समर्थ आचार्य हैं, जिन्होंने विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है । इनका काल बारहवीं शती है । उन्होंने व्याकरण, दर्शन, चरितकाव्यों एवं साधना तथा योग - इन सभी पक्षों पर ग्रन्थों का सर्जन किया है । उनके इन ग्रन्थों में जैनसाधना की दृष्टि से योगशास्त्र एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ बारह प्रकाशों में विभक्त है और मुख्य रूप से गृहस्थ जीवन तथा मुनि जीवन की साधना पद्धति का वर्णन करता है।
इसके प्रथम प्रकाश में योग की महत्ता बताते हुए ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग का विवेचन है। पुनः द्वितीय प्रकाश एवं तृतीय प्रकाश में श्रावक के बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों की चर्चा है । चतुर्थ प्रकाश में राग-द्वेष के परित्याग रूप समभाव की साधना का; पंचम प्रकाश में प्राणायाम, षष्ठ प्रकाश में प्रत्याहार और धारणा का विवेचन है । पुनः सप्तम प्रकाश से लेकर एकादश तक के पांच प्रकाशों में क्रमशः धर्मध्यान और शुक्लध्यान का विवेचन है । ग्यारहवें प्रकाश के अन्त में अर्हद् और सामान्य केवली के स्वरूप का विवेचन है । इसमें केवली समुद्घात आदि का भी वर्णन है । द्वादश प्रकाश में त्रिविध आत्माओं की चर्चा के साथ-साथ परमात्मा के स्वरूप का विवेचन किया गया है । अन्त में मन की स्थिरता, मन पर विजय प्राप्त करने के उपाय आदि की चर्चा है, किन्तु इस समग्र चर्चा में हमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ___आचार्य हेमचन्द्र के अन्य ग्रन्थों में दार्शनिक दृष्टि से अन्ययोगव्यवच्छेदिका६६ और अयोगव्यवच्छेदिका भी प्रमुख है । मूल में ये दोनों ग्रन्थ संक्षिप्त ही हैं । इनके मूल भाग में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य हेमचन्द्र यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित रहे है, किन्तु इसके विवेचन में उन्होंने विशेष अभिरुचि प्रदर्शित नहीं की है।
भनेमिचन्द्रसूरि के प्रवचनसारोद्धार में गुणस्थान विवेचन *
आचार्य राजेन्द्रसूरिजी म.सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन करते हुए जिन ग्रन्थों का निर्देश किया है, उनमें नेमिचंदसूरि कृत प्रवचनसारोद्धार०० का भी निर्देश है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रवचनसारोद्धार एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है । इसके कर्ता बृहद्गच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरि हैं । इसका रचनाकाल विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना गया है । इस ग्रन्थ पर तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही चन्द्रगच्छीय आचार्य सिद्धसेनसरि की टीका भी उपलब्ध है । प्रस्तुत कृति लगभग १६०० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। इसके २७६ द्वारों में जैनदर्शन के २७६ पक्षों पर विस्तृत एवं
३६८ योगशास्त्र, लेखकः हेमचन्द्राचार्य, भाषान्तर : केशरसूरिजी,
प्रकाशक : श्री मुक्तिचन्द्र श्रमण आराधना ट्रस्ट गिरिविहार तलेटी रोड़, पालीतणा, वि.सं. २०३३ ई.सन् १९७७ ३६६ अन्ययोगव्यवच्छेद-द्वात्रिंशिका : हेमचन्द्राचार्य, गुजराती भाषान्तर : सा. सुलोचनाश्रीजी
प्रकाशक : श्री नवरंगपुरा श्रीसंघ अमदाबाद, वि.सं. २०२४ ४०० प्रचचनसारोद्धार भाग १-२, नेमिचन्द्रसूरिजी, गुजराती अनुवादक : अमितयशविजय, सम्पादक : वज्रसेनविजयजी,
टीकाकार : सिद्धसेनसूरिजी, प्रकाशक : ज्ञानमंदिर शाहीबाग अमदाबाद (गुज.) वि.सं. २०४६, वीर.नि. २५१६, ई.सन् २६-१०-१६६२
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