Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
पंचम अध्याय........{396} गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद और अबन्ध के सम्बन्ध में कही गई है, उसे समझ लेना आवश्यक है । गोम्मटसार की कर्णाटवृत्ति में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृतियों की व्युच्छिति कही गई है, उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध उस गुणस्थान के अन्त समय पर्यन्त होता है । अतः उसमें उनके बन्ध का अभाव नहीं होता है । उसके ऊपर के गुणस्थानों में ही उनके बन्ध का अभाव होता है । जैसे प्रथम गुणस्थान में जिन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद कहा गया है, उन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्ध प्रथम गुणस्थान में सम्भव है । प्रथम गुणस्थान के अन्त में ही अर्थात् दूसरे गुणस्थान के प्रारम्भ में ही उनका बन्धविच्छेद होता है, अतः अबन्ध और बन्धविच्छेद इन दोनों में अन्तर है । सयोगी केवली गुणस्थान में जो एक कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद कहा है, वह इस अपेक्षा से कि तेरहवें गुणस्थान के अन्त में सातावेदनीय के बन्ध का भी विच्छेद हो जाता है । अतः इस चर्चा में अबन्ध और बन्धविच्छेद के अन्तर को ध्यान में रखना आवश्यक है । यहाँ हम किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद, किनका बन्ध और किनका अबन्ध है, इसके विस्तार में न जाकर इस सम्बन्ध में नीचे एक तालिका प्रस्तुत कर रहे है -
| मि. सा. मि. | अ. दे. प्र. | अ. | अपू. | अनि. | सू. बन्ध व्यु १६ |२५ | | १०४ ६ | ३६ ५ १६ ० बन्ध ११७ | १०१/७४/७७/६७ | ६३
| ६३ | ५६ | ५८ | २२ | १७ | अबन्ध ३ १६४६ | ४३
१०३ | ११६
० १ १ |
०
| ११६ | ११६
इसके पश्चात् गोम्मटसार के इस बन्धोदयसत्वाधिकार में चौदह मार्गणाओं और चौदह जीवस्थानों की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों के बन्ध आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है, किन्तु इस चर्चा में गुणस्थानों के सम्बन्ध में कोई विशेष चर्चा नहीं की गई है । मात्र गाथा क्रमांक २११ से लेकर २१४ तक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध की चर्चा के प्रसंग में यह बताया गया है कि किन गुणस्थानों में किन मूलकर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तंसयत गुणस्थान में होता है । मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्म सम्पराय नामक गुणस्थानवर्ती जीव करता है । उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण उत्कृष्ट योग होता है, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट प्रदेशबन्धवाला अल्प प्रकृतियों को ही बांधता है। इसी क्रम में आगे उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए किन उत्तर कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध किन गुणस्थानों में होता है, इसका उल्लेख हुआ है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय-इन सत्रह का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । पुरुषवेद और चार संज्वलन कषाय, इन पांच का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है । तीसरे प्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देशविरति गुणस्थान में होता है। दूसरे अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होता है। छः नोकषाय, निद्रा, प्रचला
और तीर्थंकर नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करता है । जिन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता है, वे तेरह प्रकृतियां इसप्रकार हैं - मनुष्यायु, देवायु, असातावेदनीय, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, वजऋषभनाराचसंघयण, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय । आहारकद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव करता है। इन चौवन प्रकृतियों में से शेष रही स्त्यानगृद्धि आदि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, स्त्रीवेद, नंपुसकवेद, नरकायु, तिर्यंचायु, नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति, पांच जाति,
औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, कुब्ज संस्थान, वामन संस्थान, हुण्डक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ऋषभनाराच, अर्धनाराच, कीलिका, असंप्राप्तसृपाटिका संघयण, वर्णादि चार, नरकानुपूर्वी, तिल्चनुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर,
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