Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{395} (३) सत्वस्थानभंगादिअधिकार (४) त्रिचूलिकाअधिकार (५) स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार (६) आश्रवाधिकार (७) भावचूलिका अधिकार और (८) त्रिकरणचूलिकाधिकार ।
गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार में सर्वप्रथम जीव के द्वारा कर्मों के ग्रहण की प्रक्रिया, आठ कर्म, उनके घाती-अघाती प्रकार, आठों कर्मो के मुख्य कार्य, कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ, कर्म और नोकर्म के विभाग आदि के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया गया है, किन्तु आचार्य नेमिचन्द्र ने इस समग्र चर्चा में कर्मों का ही विवेचन किया है, गुणस्थानों का नहीं। गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा हमें इसके द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में उपलब्ध होती है। इसमें सर्वप्रथम प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध-ऐसे चार बन्धों की चर्चा की गई है। फिर इनमें भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट, जघन्य-अजघन्य, सादि-अनादि, धुव-अधुव बन्ध की चर्चा है । इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में गुणस्थानों में प्रकृतिबन्ध का नियम बना है, इसकी चर्चा की गई है । इसके गाथा क्रमांक ६२ में बताया गया है कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त होता है । आहारकद्विक का बन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त ही होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता है। आयुष्यकर्म का बन्ध मिश्र गुणस्थान और मिश्र काययोग को छोड़कर प्रथम गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है । अपूर्वकरण आदि आगे के गुणस्थानों में आयुष्य का बन्ध नहीं होता है । शेष कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक, जब तक उन कर्मो की कर्मप्रकृतियों की बन्धव्युच्छिति नहीं होती है, तब तक होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिन गुणस्थानों में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, उन्हीं कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। इसमें भी कुछ विशिष्ट नियमों का उल्लेख इस गाथा की कर्णाटवृत्ति में किया गया है । उसमें यह बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही केवली अथवा श्रुतकेवली के सानिध्य में चतुर्थ गुणस्थान से लेकर षष्ठ गुणस्थान तक ही तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का प्रारम्भ करता है । अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त यह जारी रह सकता है । दूसरे तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध केवल मनुष्यगति में ही प्रारम्भ होता है । यद्यपि तिर्यंच को छोड़कर देव और नारक गतियों में भी इसका बन्ध होता रहता है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६४ में बन्धव्युच्छिति की चर्चा है । इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । सास्वादन गुणस्थान में पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध विच्छेद रहता है । मिश्र गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दस, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चार, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में छः, अप्रमत्तंसयत गुणस्थान में एक, अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में पहले में दो, छठे में तीस, सातवें भाग में चार कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पांच, सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । उपशान्तकषाय गुणस्थान और क्षीणकषाय गुणस्थान में बन्धविच्छेद का अभाव रहता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पूर्व-पूर्व के गुणस्थानों के उपान्त समय में जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है, उसके बाद के अग्रिम-अग्रिम गुणस्थानों में उन-उन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । इसी आधार पर यह कहा गया है कि उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति के बन्ध का विच्छेद नहीं है अर्थात् ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में दसवें गुणस्थान तक जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है, उन्हीं का बन्धविच्छेद रहता है, किसी नवीन कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं होता है । सयोगी केवली गुणस्थान में मात्र असातावेदनीय नामक एक कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद होता है। अयोगी केवली गुणस्थान में बन्ध भी नहीं होता है और बन्धविच्छेद भी नहीं होता है । इसके पश्चात् अग्रिम गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान में कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है, इसका विस्तृत विवेचन है, किन्तु यह विवेचन पंचसंग्रह, द्वितीय कर्मग्रन्थ, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि में भी किया जा चुका है, इसीलिए पुनरावृत्ति के भय से पुनः यहाँ उन सबका उल्लेख करना समुचित प्रतीत नहीं होता है । हमारी जानकारी में इस बन्धविच्छेद को लेकर गोम्मटसार की अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कोई विशेष भिन्नता प्रतीत नहीं होती है। अतः यहाँ हम इस चर्चा में विस्तार में जाना नहीं चाहते है । यहाँ एक विशेष बात जो विभिन्न
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