Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
पंचम अध्याय......{383} यह कहना कठिन है कि किसने किससे लिया है, फिर भी गुणस्थानों की परिभाषा एवं स्वरूप विवेचन की दृष्टि से दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह अधिक विकसित प्रतीत होता है । यहाँ हम इस विवाद में अधिक न उलझकर, यही देखने का प्रयत्न करेंगे कि इन पंचसंग्रहों में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण है, वह किस रूप में उपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा के पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में है, इसका विवेचन हम पूर्व में कर चुके हैं। अब दिगम्बर पंचसंग्रह में गुणस्थान चर्चा किस रूप में है, यह देखेंगे ।
दिगम्बर पंचसंग्रह में प्रथम जीवसमास नामक अधिकार में सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का स्वरूप दिया गया है । गाथा क्रमांक ३ में गुणस्थान शब्द की परिभाषा दी गई है। उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४ और ५ में चौदह गुणस्थानों के नाम दिए गए है। ये दोनों गाथाएं श्वेताम्बर जीवसमास की गाथा क्रमांक ८ और ६ से किंचित् पाठभेद के अतिरिक्त समरूपता रखती है। उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६, ७ और ८ में मिथ्यात्व गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । फिर गाथा क्रमांक ६ में सास्वादन गुणस्थान का तथा गाथा क्रमांक १० में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ११ एवं १२ में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का और गाथा क्रमांक १३ में देशविरति गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है । इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक १४ और १५ में प्रमत्तसंयत गुणस्थान और गाथा क्रमांक १६ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १७ से १६ तक, तीन गाथाओं में अपूर्वकरण गुणस्थान के स्वरूप का तथा गाथा क्रमांक २० और २१ में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक २२ और २३ सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का और गाथा क्रमांक २४ उपशान्तकषाय गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करती है । पुनः गाथा क्रमांक २५ और २६ में क्षीणकषाय गुणस्थान का और गाथा क्रमांक २७ से २६ तक तीन गाथाओं में सयोगी केवली गुणस्थान का तथा गाथा क्रमांक ३० में अयोगी केवली गुणस्थान के स्वरूप का विवचेन उपलब्ध होता है । इसप्रकार पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार लगभग २७ गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करता है । गुणस्थानों के इस स्वरूप विवेचन में एक विशेषता जो हमें प्राप्त होती है, वह यह है कि यहाँ गुणस्थानों के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि की कोई चर्चा नहीं लगती है, मात्र उनके स्वरूप का ही विवेचन हुआ है । श्वेताम्बर जीवसमास में जहाँ केवल दो गाथाओं में ही गुणस्थानों के नामों का उल्लेख किया गया है ३४० वहाँ दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के इस जीवसमास नामक अधिकार में २७ गाथाओं में गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है । ३४१ इस आधार पर हम यह कह सकते है कि श्वेताम्बर जीवसमास की अपेक्षा दिगम्बर पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार गुणस्थानों की विकसित और विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है । गुणस्थानों के स्वरूप का यह विकसित और विस्तृत विवेचन, श्वेताम्बर जीवसमास की अपेक्षा इसे परवर्ती कालीन ही सिद्ध करता है ।
इसके पश्चात् दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार, चौदह जीवसमासों (जीवस्थानों) तथा चौदह मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है । इस चर्चा में योग मार्गणा की चर्चा करते हुए अयोगी जीवों के स्वरूप का और संयम मार्गणा की चर्चा के प्रसंग में देशविरति और सर्वविरति का उल्लेख हुआ, किन्तु गुणस्थान की विवेचना की दृष्टि से यह चर्चा कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं है । २४२ जीवसमास अधिकार की अग्रिम गाथाओं में गुणस्थान सम्बन्धी जो विशेष विवरण हमें उपलब्ध होता है, उसमें जीवसमास की गाथा क्रमांक १६७ में तीनों प्रकार के सम्यक्त्वों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। यह चर्चा गाथा क्रमांक १६७ से लेकर १७२ तक सम्यक्त्व मार्गणा की चर्चा के प्रसंग में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार पांच प्रकार ३४० जीवसमास, गाथा क्रमांक ८, ६ लेखक : अज्ञात पूर्वधर, सम्पादक डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ३४१ दि. प्रांत पंचसंग्रह, जीवसमास गाथा क्र. ३ से ३० तक,
सम्पादक : पं. हीरालाल जैन, प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
३४२ वहीं, योगमार्गणाधिकार गाथा क्रमांक १००
सयंममार्गणाधिकार गाथा क्रमांक १३२, १३३ कर्मस्तवाधिकार गाथा क्रमांक ४ से ६, ६४
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