Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 433
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय........{385} अधिकार में गाथा क्रमांक ७१ में विभिन्न गुणस्थानों में कितने उपयोग उपलब्ध होते हैं, इसकी चर्चा है । इसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सास्वादन- इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन एवं अचक्षुदर्शन- ऐसे पांच उपयोग होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरति इन दो गुणस्थानों में प्रथम तीन ज्ञान और प्रथम तीन दर्शन- ऐसे छः उपयोग उपलब्ध होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान में भी उपर्युक्त छः उपयोग ही मिश्रित रूप में उपलब्ध होते हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक के सात गुणस्थानों में आदि के चार ज्ञान और आदि के तीन दर्शन- ऐसे सात उपयोग उपलब्ध होते हैं । अन्तिम सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में मात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन- ऐसे दो उपयोग होते है । इसप्रकार गुणस्थानों में उपयोग की चर्चा की गई है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ७४ से लेकर ७६ तक में, किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक और वैक्रियकाययोग- ऐसे दस योग होते हैं। पांचवें देशविरति, सातवें अप्रमत्तसंयत, आठवें अपूर्वकरण, नवें अनिवृत्तिकरण, दसवें सूक्ष्मसंपराय, ग्यारहवें उपशान्तकषाय और बारहवें क्षीणकषाय-इन सात गुणस्थानों में वैक्रियकाययोग को छोड़कर शेष नौ योग होते हैं । छठें गुणस्थान में उपर्युक्त नौ योगों के साथ ही आहारकद्विक की संभावना होने से ग्यारह योगों की संभावना होती है । यद्यपि छठें गुणस्थान में वैक्रियद्विक की भी संभावना है, किन्तु जिस समय वैक्रियद्विक होगा उस समय आहारकद्विक नहीं होगा, अतः एक समय में अधिकतम ग्यारह योग ही होंगे । सयोगी केवली गुणस्थान में सत्य मनोयोग, असत्यअमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्यअमृषा वचनयोग, औदारिकद्विक तथा कार्मणकाययोग- ऐसे सात योग होते हैं । इसके पश्चात् शतक नामक इस चतुर्थ अधिकार में गाथा क्रमांक ७७ से लेकर ८० तक विभिन्न गुणस्थानों मे बन्धहेतुओं की चर्चा की गई है। इसमें प्रथम चार मूल बन्धहेतुओं को लेकर विभिन्न गुणस्थानों में कितने-कितने बन्धहेतु होते हैं, इसका निरूपण किया गया है । इसके पश्चात् उत्तर बन्धहेतु का निर्देश करके किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु होते हैं, इसका विवेचन किया गया है । यहाँ मिथ्यात्व के पांच, अविरति के १२, कषाय के २५ और योग के १५ - इसप्रकार उत्तर बन्धहेतु ५७ बताए गए है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १०० में यह चर्चा की गई है कि प्रत्येक गुणस्थान में एक समय में एक जीव को जघन्य और उत्कृष्ट, कितने उत्तर बन्धहेतु सम्भव है । मिथ्यात्व गुणस्थान में जघन्य से १० और उत्कृष्ट से १८ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । सास्वादन गुणस्थान में जघन्य से १० और उत्कृष्ट से १७ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । मिश्र गुणस्थान में जघन्य से ६ और उत्कृष्ट से १६ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जघन्य से ६ और उत्कृष्ट से १६ उत्तर बन्धहेतु होते हैं। देशविरति गुणस्थान में जघन्य से और उत्कृष्ट से १४ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण- इन तीन गुणस्थानों में जघन्य से ५ और उत्कृष्ट से ७ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में जघन्य से २ और उत्कृष्ट से ३ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में जघन्य से २ और उत्कृष्ट से भी २ उत्तर बंधहेतु होते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली- इन तीन गुणस्थानों में एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से एक ही बन्धहेतु होता हैं । अयोगी केवली गुणस्थान में कोई बन्धहेतु नही होता है। इसके पश्चात् इस शतक नामक चतुर्थ अधिकार में बन्धहेतुओं के विकल्पों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, किन्तु यह चर्चा श्वेताम्बर पंचसंग्रह और चतुर्थ कर्मग्रन्थ में भी विस्तार से उपलब्ध है, जिसका निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः विस्तार और पिष्टपेषण के भय से हम यहाँ इसकी चर्चा प्रस्तुत नहीं कर रहे है । ८ 1 बन्ध हेतुओं की इस चर्चा के पश्चात् दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में शतक नामक चतुर्थ अधिकार में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध विकल्पों, उदय विकल्पों तथा सत्ता विकल्पों की चर्चा की गई है। इसके पश्चात् इस अधिकार में, विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का विच्छेद होता है, इसका विवेचन भी उपलब्ध है । यह विवेचन भी श्वेताम्बर पंचसंग्रह और द्वितीय कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में विस्तार से किया जा चुका है, अतः हम इस चर्चा को भी यहीं विराम देते हैं, क्योंकि ऐसा करने में मात्र पिष्टपेषण ही होगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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