Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
View full book text
________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{384} के संयमों की चर्चा करते हुए पांच प्रकार के संयमों में कौन-कौन से गुणस्थान अन्तर्भावित होते है, इसकी चर्चा जीवसमास की गाथा क्रमांक १६५ में उपलब्ध होती है । इसप्रकार जीवसमास में यद्यपि मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, फिर भी उनमें गुणस्थानों का अवतरण विरल रूप में ही मिलता है, जबकि षट्खण्डागम और स्वार्थसिद्धि की टीका में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों के अवतरण की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। इसप्रकार हम यह देखते हैं कि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का प्रथम जीवसमास नामक अधिकार गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी अन्य कोई भी चर्चा विस्तारपूर्वक प्रस्तुत नहीं करता है।
दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का द्वितीय अधिकार प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार है। इसमें प्रथम कर्मग्रन्थ के समान ही मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के नाम तथा उनमें बन्धयोग्य और बन्धअयोग्य कर्मप्रकृतियों, उदययोग्य और उदयअयोग्य कर्मप्रकृतियों, उदीरणायोग्य और उदीरणाअयोग्य कर्मप्रकृतियों, ध्रुवबन्धी और अध्रुवबन्धी कर्मप्रकृतियों तथा परावर्तमान कर्मप्रकृतियों की विस्तृत चर्चा है । इसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है।
___ दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का तृतीय अधिकार कर्मस्तव अधिकार है । इस अधिकार में चौदह गुणस्थानों में किन-किन मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है और किनकी सत्ता विच्छिन्न हो जाती है, इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसी चर्चा के प्रसंग में विभिन्न गुणस्थानों में जिन जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद और उदयविच्छेद होता है, इसकी भी विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इसके साथ ही इसमें विशेषतः यह बताया गया है कि उदय और उदीरणा में प्रमत्तसंयत, सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन तीन गुणस्थानों को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । प्रमत्तंसयत गुणस्थान में स्त्यानगृद्धित्रिक, आहारकद्विक, साताअसाता वेदनीयद्विक और मनुष्यायु-इन आठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इसीप्रकार सयोगी केवली गुणस्थान में उदय योग्य ३० और अयोगी केवली गुणस्थान में उदय योग्य १२, इन ४२ प्रकृतियों में से सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु-इन तीन की उदीरणा नहीं होने से, इनको कम करने पर इस गुणस्थान में उनचालीस कर्मप्रकृतियों की ही उदीरणा सम्भव होती है। अयोगी केवली गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा सम्भव नहीं होती है ।३४३ इतनी चर्चा ही उपलब्ध होती है । इसके पश्चात् इस कर्मस्तव अधिकार में किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है । अन्त में कर्मस्तव की चूलिका में बधं, उदय और सत्ताविच्छेद सम्बन्धी ६ प्रश्नों का स्पष्टीकरण किया गया है, किन्तु इनमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा नहीं है। इसप्रकार कर्मस्तव नामक तृतीय अधिकार में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध-बन्धविच्छेद, उदय-उदयविच्छेद, उदीरणा- उदीरणाविच्छेद तथा सत्ता-सत्ताविच्छेद सम्बन्धी विस्तृत चर्चा विभिन्न गुणस्थानों के आधार पर की गई है, किन्तु यह समस्त चर्चा षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि श्वेताम्बर पंचसंग्रह और विशेष रूप से द्वितीय कर्मग्रन्थ में भी मिलती है, जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं । यद्यपि दिगम्बर प्रकृति पंचसंग्रह के इस कर्मस्तव अधिकार और कर्मस्तव नामक द्वितीय नव्यकर्मग्रन्थ की गाथाओं में तो समरूपता नहीं है, किन्तु विषय विवेचन की दृष्टि से दोनों में विशेष अन्तर भी नही है, अतः यहाँ, पुनरावृत्ति तथा विस्तार भय से हम इस चर्चा के विस्तार में न जाकर, इस समस्त चर्चा को कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में जो विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता सम्बन्धी विवेचन है, उसे देखने कि अनुशंसा करते हैं । हमारी दृष्टि में दोनों के विवरणों में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
दिगम्बर प्रकृति पंचसंग्रह का चतुर्थ अधिकार शतक है । इस शतक नामक चतुर्थ अधिकार में गाथा क्रमांक ५७ से लेकर ७० तक विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । यह विवरण भी षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि के अनुरूप ही है, अतः पिष्ट-पेषण के भय से इसकी भी पुनः चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है । शतक नामक इस चतुर्थ
३४३ प्राकृत पंचसंग्रह, कर्मस्तवाधिकार गाथा क्रमांक ६,७ वहीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org