Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय ........{192} को प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों ही सापेक्षभाव है । २१७ शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा से तो जो आत्मा है, वहीं है । यहाँ इस विवरण को हम गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं कह सकते हैं। इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक-३३ में क्षीणमोह अवस्था का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि जिस मुनि ने मोहकर्म को जीत लिया है, इसे क्षीणमोह कहा जाता है । २१८ इसी प्रकार गाथा क्रमांक - ११० में सयोगी अवस्था का उल्लेख है । २१६ इसी प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में मिथ्यादृष्टि, प्रमत्त, अप्रमत्त, क्षीणमोह और सयोगी ऐसी पांच अवस्थाओं का ही उल्लेख है; किन्तु इससे यह निर्णय नहीं किया जा सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द चौदह गुणस्थानों से सुपरिचित नहीं थे । क्योंकि समयसार की गाथा क्रमांक १०६-११० में सर्वप्रथम मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ऐसे चार बन्धहेतुओं की चर्चा करते हुए, गाथा क्रमांक- ११० में ये बन्ध के विकल्पों के चर्चा के प्रसंग में स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि से लेकर अन्तिम सयोगी तक बन्ध के तेरह विकल्प होते है ।२२० आचार्य कुन्दकुन्द ने चाहे यहाँ स्पष्टरूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु वे मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक के तेरह गुणस्थानों का ही यहाँ निर्देश कर रहे हैं। प्रश्न हो सकता है कि गुणस्थान तो चौदह होते हैं, फिर भी यहाँ आचार्य 'कुन्दकुन्द ने तेरह का ही उल्लेख क्यों किया है ? इसका कारण यह है कि कर्मबन्ध तेरह गुणस्थानों तक ही होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में बन्ध के चार हेतुओं में से मात्र योग के निमित्त से बन्ध कहा गया है । चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था होने के कारण बन्ध का कोई हेतु शेष नहीं रहता है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने बन्ध की अपेक्षा से मात्र तेरह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । यहाँ एक और विशेष बात ज्ञातव्य है कि डॉ. सागरमल जैन ने के गुण शब्द का अर्थ, कर्म किया है । उसकी पुष्टि भी आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की गाथा - ११२ से होती है । उसमें कहा है कि जीव तो अकर्ता है, गुण ही कर्म के कर्ता हैं । २२१ इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख न किया हो, किन्तु वे चौदह गुणस्थानों से सुपरिचित रहे हैं, इसका निर्देश गाथा क्रमांक- ११० में कर दिया गया है ।
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गुणस्थान
आचार्य कुन्दकुन्द के दूसरे ग्रन्थ नियमसार में जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि वे केवल यही कहते हैं कि आत्मा जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान से परे है । २२२ ( गाथा - ७८ ) जहाँ तक गुणस्थान से सम्बन्धित अवस्थाओं का प्रश्न है,
२१७ णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भांति सुद्धं ओ जो सोउ सो चेव ।।
समयसार, प्रथमाधिकार, गाथा क्रमांक- ६ २१८ जिदमोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि ||
समयसार, प्रथमाधिकार, गाथा क्रमांक- ३३
२१६ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो हु तेरसवियप्पो । मिच्छादि द्विआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥
समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक- ११०
२२० सामण्णपच्चया खत्मु चउरो भण्णंति बन्धकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। १०६ ।। सिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो हु तेरसवियप्पो । मिच्छादिट्ठीआदि जाव सजोगिस्स चरमंतं 11११० ।।
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समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक- १०६-११०
२२१ गुणसण्णिदा दु एदे कम्म कुष्षंति पच्चया जम्हा ।
तम्हा जीव कत्ता गुणाय कुष्वंति कम्माणि ।।
समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक - ११२
२२२ णाहं मग्गणट्ठाणो णाहं गुणट्ठाण जीवट्ठणो ण । कत्ता हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।।
नियमसार, पांचवाँ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार, गाथा क्रमांक- ७८
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