Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{367} कौन-कौन से गुणस्थानों में होता है, इसकी विवेचना की गई है । जिस गुणस्थान में जिनका बन्ध कहा गया है, उस-उस गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध अवश्य ही होता है, उन्हें ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ कहाँ जाता है । धुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७ हैं । वे इस प्रकार है - (१) वर्ण (२) गन्ध (३) रस (४) स्पर्श (५) तैजस शरीर (६) कार्मण शरीर (७) अगुरुलघु नामकर्म (८) निर्माण नामकर्म (६) उपघात नामकर्म (१०) भय (११) जुगुप्सा (१२) मिथ्यात्वमोह (१३ से २८) सोलह कषाय (२६ से ३३) पाँच ज्ञानावरणीय (३४ से ४२) नौ दर्शनावरणीय और (४३ से ४७) पाँच अन्तराय । मिथ्यात्वमोहनीय का ध्रुवबन्ध प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है । स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का ध्रुवबन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क का अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तथा प्रत्याख्यानीय चतुष्क का देशविरति गुणस्थान तक धुवबन्ध होता है । निद्राद्विक का धुवबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक तथा वर्णादि चार, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण एवं उपघात-इन नौ प्रकृतियों का धुवबन्ध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक होता है । भय और जुगुप्सा का धुवबन्ध आठवें गुणस्थान के अन्त तक होता है । संज्वलन क्रोध का नवें गुणस्थान के द्वितीय भाग तक, संज्वलन मान का नवें गुणस्थान के तृतीय भाग तक, संज्वलनमाया का न गुणस्थान के चतुर्थ भाग तक, संज्वलन लोभ का नवें गुणस्थान के पंचम भाग तक धुवबन्ध होता है । पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय तथा पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों का धुवबन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है।
पंचम कर्मग्रन्थ की छठी गाथा में ध्रुवोदयी २७ प्रकृतियों का वर्णन किया गया है । जिन कर्मप्रकृतियों का जिस गुणस्थान तक उदय कहा गया है. वहाँ तक उनका अविच्छिन्न रूप से उदय बना रहे, उन्हें ध्रुवोदयी कर्म प्रकृतियाँ कहा जाता है। ये निम्न प्रकार है :- (१) निर्माण (२) स्थिर (३) अस्थिर (४) अगुरुलघु (५) शुभ (६) अशुभ (७) तैजस (८) कार्मण (E) वर्ण (१०) गन्ध (११) रस (१२) स्पर्श (१३ से १७) पाँच ज्ञानावरणीय (१८ से २२) पाँच अन्तराय (२३ से २६) चार दर्शनावरणीय और (२७) मिथ्यात्वमोह । मिथ्यात्व मोह का धुवोदय प्रथम गुणस्थान तक होता है । पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय तथा पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों का धुवोदय बारहवें गुणस्थान तक होता है, शेष नामकर्म की बारह प्रकृतियों का ध्रुवोदय तेरहवें गुणस्थान तक होता है। ___पंचम कर्मग्रन्थ की दसवीं गाथा से लेकर बारहवीं गाथा तक में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्म प्रकृतियों की धुवसत्ता होती है, इसका विवेचन किया गया है। जिस कर्मप्रकृति की सत्ता जिस गुणस्थान तक कही गई है, वहाँ तक निश्चय से उसकी सत्ता होती ही है, उसे धुवसत्ता कहते हैं। ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियाँ १३० है। (१ से २०) त्रसवीशक (२१ से २४) वर्णवीशक (४१ से ४७) तैजस कार्मण सप्तक (४८ से १६) ध्रुवबन्धी इकतालीस प्रकृतियाँ (६० से ६२) तीन वेद (६३ से ६६) छः संस्थान (१०० से १०५) छः संघयण (१०६ से ११०) जाति पाँच (१११ से ११२) दो वेदनीय (११३ से ११४) दो युगल (११५ से १२१) औदारिक सप्तक (१२२ से १२५) उच्छ्वास चतुष्क (१२६ से १२७) विहायोगतिद्विक (१२८ से १२६) तिर्यंचद्विक तथा (१३०) नीचगोत्र । प्रथम तीन गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से हाती है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि आठ आगे के गुणस्थानों में विकल्प से होती है, क्योंकि जिसने मिथ्यात्वमोह का क्षय किया है, उसे नहीं होती है तथा जिसने मिथ्यात्व मोह का उपशमन किया है, उसे मिथ्यात्व मोह की सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से होती है तथा मिथ्यात्वादि दस गुणस्थानों में विकल्प से होती है। जब जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति होती है, तब निश्चय से वह मोहनीय कर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियों की सत्तावाला होता है । द्वितीय गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से होती है । अनादि मिथ्यात्वी जीव को तथा जिसने सम्यक्त्व की उद्वलना की है, उसे सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्य जीवों को होती है । मिश्र गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सत्ताईस कर्मप्रकृतियों की सत्तावाले तथा सम्यक्त्व की उद्वलना करने वाले को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय ही होती है, किन्तु दूसरों को नहीं होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक क्षायिक सम्यक्त्वी को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता होती है, अन्य को नहीं होती है । सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्र मोहनीय की सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान एवं मिश्र गुणस्थान उन्हें ही प्राप्त होता है, जिसमें मोहनीय कर्म की
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