Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{370) प्रदेशबन्ध करता है । देवद्विक, वैक्रियद्विक और जिननाम-इन पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव अपने जन्म के प्रथम समय में करता है । उदाहरण के रूप में यदि कोई मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है, तो वहाँ अपने जन्म के प्रथम समय में वह तीर्थंकर नामकर्म और उसकी सहवर्ती बीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है । इसी प्रकार तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करता हुआ यदि कोई जीव देव अथवा नारक योनि से च्युत होकर मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है, तो यहाँ भी वह अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय में तीर्थकर नामकर्म और उसकी सहयोगी २६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है । इसी प्रकार सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्त जीव अपने जन्म के प्रथम समय में अल्प वीर्यवाले होने के कारण तथा अनेक प्रकृतियों को बांधते हुए १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करते हैं । यहाँ जघन्य प्रदेशबन्ध करने का कारण यह है कि अप्रमत्तसंयत में आहारकद्विक के बन्ध के तीव्र परिणाम नहीं होते हैं । इसी प्रकार अपने जन्म के प्रथम समय में अपर्याप्त अवस्था के कारण जीव का पुरुषार्थ इतना अल्प होता है कि वह कर्म प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है। उपशम और क्षपक श्रेणी की अवधारणा और गुणस्थान सिद्धान्त :
शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६८ वीं और ६६ वीं गाथा में तथा सप्तति नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ७५ से ५८ तक में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का निर्देश किया गया है । ज्ञातव्य है कि श्रेणी-आरोहण गुणस्थानों के माध्यम से ही होता है । गुणस्थानों की अवधारणा में आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास के दो मार्गों का विवेचन उपलब्ध होता है । शास्त्रीय परिभाषा में इन्हें, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी कहा जाता है। जो साधक उपशमश्रेणी से अपना आध्यात्मिक विकास करता है, वह ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान को प्राप्त करके वहाँ से पतित हो जाता है, जबकि जो आत्मा क्षपकश्रेणी से यात्रा करती है वह आठवें, नवें, दसवें गुणस्थान से क्रमिक विकास करती हुई सीधे बारहवें गणस्थान में प्रवेश करती है और इस गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण आदि कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाती है । क्षपक श्रेणी से विकास करनेवाली आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करती है, क्योंकि यह उपशमश्रेणी का अन्तिम गुणस्थान है । उपशमश्रेणी से यात्रा करनेवाला साधक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, किन्तु कुछ आचार्यों के अनुसार इसकी यात्रा का प्रारम्भ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से होता है । इस गुणस्थान में वह सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उपशम करता है और फिर श्रेणी आरोहण करता है, किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता है कि, सप्तम गुणस्थान में अन्तन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करता है और त्तत्पश्चात् श्रेणी आरोहण करता है । पंचम कर्मग्रन्थ की ६८ वी गाथा में कहा गया है कि उपशमश्रेणी का साधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनमोह, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादिषट्क के दो युगल को क्रमशः उपशमित करता है । इस प्रकार उन्हें उपशमित करता हुआ वह ग्यारहवें उपशांतमोह अवस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक रहकर उपशमित कषायों और नोकषायों के उदय से ग्यारहवें गुणस्थान से पतित हो जाता है। उपशमश्रेणी में कर्म सत्ता में बने रहते हैं । साधक अपनी साधना के बल पर कुछ काल के लिए उनके उदय को रोक देता है, किन्तु सत्ता में रहे हुए वह कर्म अन्ततोगत्वा उदय में आते ही है और साधक को अपने आध्यात्मिक विकास की इस स्थिति से पतित कर देते हैं । पतित होते समय वह क्रमशः उल्टेक्रम से गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ नीचे गिरता है । पतन के इस क्रम में वह सातवें, चौथे या प्रथम गुणस्थान में विश्राम लेकर पुनः यात्रा प्रारम्भ कर सकता है।
उपशमश्रेणी से वास्तविक आरोहण तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के चरम समय से ही प्रारम्भ होता है । यद्यपि यह सम्भव है कि कोई आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनमोह, अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का उपशम करती हुई सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होती है । इसके साथ यह भी सम्भव है कि वह सातवें गुणस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करके और दर्शनमोह त्रिक का क्षय करके अन्य कषायों और नोकषायों का उपशम करती हुई अग्रिम यात्रा करें । उपशमश्रेणी से आध्यात्मिक विकास की यात्रा करनेवाला साधक वज्रऋष ऋषभनाराच और नाराच - इन तीन प्रथम संघयणों में से किसी एक संघयणवाला होता है । किन्तु जो साधक उसी भव में
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