Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
पंचम अध्याय........{373} स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने तो ७० गाथाएँ बनाई थी, किन्तु कुछ दुर्बोध विषयों के स्पष्टीकरण के लिए टीकाकार ने इसमें अन्य गाथाएँ प्रक्षिप्त की है। इस सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों की अपेक्षा से मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्ता आदि की अपेक्षा से कितने भंग या विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा की गई है।
सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में सर्वप्रथम जीवस्थानों में कितनी मूल प्रकृतियों का बन्ध, सत्ता और उदय रहता है इसके विकल्पों की चर्चा की गई है । छठे कर्मग्रन्थ में प्रथम तेरह जीवस्थानों में सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, आठ कर्मप्रकृतियों का उदय और आठ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है । इसमें आयुष्य कर्म का बन्ध सर्व काल में नहीं होने से जब आयुष्य कर्म का बन्ध हो, तब आठ कर्मों का बन्ध होता है, परन्तु जब आठ कर्मों का बन्ध नहीं होता है, तब सात कर्मों का बन्ध रहता है, किन्तु उदय एवं सत्ता तो आठों कर्मों की सदैव ही रहती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव को छ: मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है । उपशान्तमोह गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता रहती है । क्षीणमोह गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और सात की सत्ता रहती है । अग्रिम सयोगीकेवली गुणस्थान में एक का बन्ध, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होता है, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । इसप्रकार मूल कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों में कितनी मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है । इसमें यह बताया गया है कि प्रथम तेरह जीवस्थानों में दो ही विकल्प होते हैं । प्रथम विकल्प में आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है। द्वितीय विकल्प में सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में पाँच विकल्प होते हैं - पहला विकल्प आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता दूसरा विकल्प सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता, तीसरा विकल्प सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में बनता है जहाँ छःका बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता होती है। चौथा विकल्प उपशातमोह गुणस्थान में होता है जहाँ एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता होती है । पाँचवाँ विकल्प क्षीणमोह गुणस्थान में होता है, जहाँ एक का बन्ध, सात का उदय और सात की सत्ता होती है। इन्हीं में केवली की अपेक्षा से विचार करने पर दो विकल्प बनते हैं। सयोगीकेवली अवस्था में एक का बन्ध, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है, जबकि अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होकर चार का उदय और चार की सत्ता रहती है ।
___ सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों की अपेक्षा से मूल प्रकृतियों के विकल्पों की चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें गुणस्थान तक दो ही विकल्प होते हैं। आठ का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है अन्यथा सात का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है। तीसरे तथा आठवें गुणस्थान से लेकर चौंदहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में आयुष्य का बन्ध नहीं होने से सात का बन्ध, आठ का उदय तथा आठ की सत्ता रहती है और
स्थान में भी आयुष्य का बन्ध नहीं होने से सात का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है । दसवें गुणस्थान में छः का बन्ध, आठ का उदय तथा आठ की सत्ता होती है । ग्यारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता होती है । बारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय तथा सात की सत्ता रहती है । तेरहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, चार का उदय तथा चार की सत्ता रहती है । चौदहवें गुणस्थान में बन्ध का अभाव होकर चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । इसप्रकार हम देखते हैं कि प्रथम सात गुणस्थान तक बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा से दो-दो विकल्प होते हैं। जबकि तीसरे एवं आठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एक-एक विकल्प होता है ।
इस प्रकार सप्ततिका नामक इस कर्मग्रन्थ में सर्वप्रथम विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियो के बन्ध, उदय और सत्ता के विभिन्न विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है । इसके पश्चात् इस सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में उत्तर कर्मप्रकृतियों के
भिन्न गुणस्थानों में कितने विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। सप्ततिका नामक इस षष्ठ कर्मग्रन्थ की ४३ से लेकर ५१ तक की गाथाओं में एक-एक कर्म की आवान्तर प्रकृतियों को लेकर उनके बन्ध, उदय और सत्ता के कितने विकल्प होते हैं, इसका विचार किया गया है। ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ पाँच है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्यसंपराय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता रहती है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों के बन्ध का अभाव होता है, किन्तु उदय और सत्ता पाँचों प्रकृतियों की
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