Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 414
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{366} षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ६२ वीं और ६३ वीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व का विवेचन किया गया है । उपशान्तमोह गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं, क्योंकि एक साथ इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव अधिक से अधिक ५४ ही होते हैं । उपशान्तमोह गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान में एक साथ आरोहण करनेवाले अधिकतम १०८ जीव होते हैं । ये उल्लेख दोनों गुणस्थानों में एक साथ प्रवेश करनेवाले जीवों की अपेक्षा कहा गया है । इन दोनों गुणस्थानवी जीव संसार में कभी होते है और कभी नहीं भी होते हैं । कभी ऐसा भी होता है कि क्षीणमोह गुणस्थान में एक भी जीव न हो, परन्तु उपशान्तमोह गुणस्थान में जीव होते हैं, इसीलिए ये अल्प-बहुत्व अधिक से अधिक प्रवेश करनेवाले जीवों की अपेक्षा से ही समझना चाहिए । क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा आठवें, नवें तथा दसवें गुणस्थानवी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि ये तीनों गुणस्थान दोनों श्रेणियों में आते हैं । इन तीनों गुणस्थानों में प्रवेश की अपेक्षा से प्रतिसमय अधिकतम ५४ + १०८ = १६२ जीव होते हैं । इन तीनों गुणस्थानों में आपस में जीवों की संख्या समान है। दसवें, नवें और आठवें गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि वे कोटि पृथक्त्व अर्थात् दो से नौ करोड़ होते हैं । जगचिंतामणि के चैत्यवंदन में 'नव कोडीहिं केवलिण' - ऐसा निर्देश भी है । सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है । क्योंकि अप्रमत्तसंयत मुनियों में कोटिसहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो से नौ हजार करोड़ होते है, इसीलिए तेरहवें गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणा अधिक है । इसमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, जबकि प्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या भी कोटिसहस्रपृथक्त्व ही है, परन्तु अप्रमाद अवस्था के काल से प्रमाद अवस्था का काल जीवों में अधिक होता है, इसीलिए अप्रमत्तंसयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक कहे गए हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से देशविरति गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तो मात्र मनुष्य में ही होता है, जबकि देशविरति गुणस्थान तो मनुष्य और तिर्यंच दोनों को होता है तथा मनुष्यों की अपेक्षा तिर्यंच असंख्यातगुणा अधिक होते है, इसीलिए छठे गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा पांचवें गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है । देशविरति गुणस्थानवी जीवों से सास्वादन गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है । सास्वादन गुणस्थान सदा नहीं होता है अर्थात् कभी होता है और कभी नहीं होता है, परन्तु जब भी होता है, तब एक, दो या असंख्यात जीव भी हो सकते हैं । देशविरति गुणस्थान तो मनुष्य और तिर्यंच को होता है, परन्तु सास्वादन गुणस्थान तो चारों गति के जीवों को होता है । सास्वादन गुणस्थानवी जीवों से मिश्र गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान का काल तो छः आवलिका ही है, जबकि मिश्र गुणस्थान का काल तो अन्तर्मुहर्त है । इस गुणस्थान का काल दीर्घ होने से प्रवेश करनेवाले और प्रवेश किए हुए जीवों की संख्या अधिक है । मिश्र गुणस्थानवी जीवों से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है। चौथे गुणस्थान का काल तेंतीस सागरोपम से भी कुछ अधिक है, इसीलिए इस गुणस्थान में जीव की संख्या अधिक होती है तथा चौथे गुणस्थानवी जीव चारों गति में होते है और इस गुणस्थान में जीव दीर्घकाल तक रहते भी है, इसीलिए तीसरे गुणस्थान से चौथे गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक होते है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणा अधिक है । सिद्ध के सभी जीव अयोगी केवली होने से, भवस्थ और अभवस्थ दोनों प्रकार के जीवों के कारण अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणा कहे गए हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणा अधिक है, क्योंकि मात्र साधारण वनस्पतिकाय के जीव (सूक्ष्म-बादर निगोद के जीव) ही अनन्त है । इसप्रकार षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ सम्बन्धी विवरण समाप्त होता है । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाएँ शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा में धुवबन्धी प्रकृतियाँ कौन-कौन सी और कितनी है तथा उसका बन्ध Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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