Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{228} ..
षष्ठ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपर्युक्त ५३ कर्मप्रकृतियों के साथ मोहनीय कर्म की प्रत्याख्यानीय चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) मिलकर ५७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है ।
सप्तम अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में वेदनीय कर्म की एक, मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त १५ तथा अरति एवं शोक-इस तरह १७, नाम कर्म की पूर्वोक्त ३५ तथा अस्थिरनाम कर्म, अशुभनामकर्म, अपयशनामकर्म - इस तरह ३८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है, किन्तु सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारकद्विक का बन्ध सम्भव होने से प्रारम्भ में ३६ कर्मप्रकृतियों का ही बन्ध-विच्छेद यानी संवर मानना चाहिए, किन्तु सप्तम गुणस्थान के अन्त में आहारकद्विक का भी संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है, अतः सप्तम गुणस्थान की अपेक्षा से ३८ कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद माना जा सकता है । अष्टम अपूर्वकरण नामक गुणस्थान के प्रारंभिक संख्यात भाग में निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बन्ध को प्राप्त होती हैं । आगे के संख्यात भाग में इसका बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । इस प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की ५ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर कहा गया है । दर्शनावरणीय कर्म की शेष चार (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन) कर्मप्रकृतियाँ बन्ध को प्राप्त होती रहती हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में वेदनीय कर्म से असातावेदनीय कर्म का पूर्ववत् ही बन्ध-विच्छेद या संवर रहता है । अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, प्रत्याख्यानीय चतुष्क, नपुंसक वेद, अरति, शोक, स्त्रीवेद और मिथ्यात्व मोहनीय-इन १७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाता है । इस गुणस्थान के अन्तिम छठे भाग में, हास्य, रति, जुगुत्सा, और भय इन चारों का बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाने से इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २१ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर बताया गया है। अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रमाद का अभाव होने से आयुष्य कर्म की चारों ही कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार गोत्रकर्म में पूर्ववत् नीच गोत्र के बन्ध का बन्ध-विच्छेद या संवर जानना चाहिए । जहाँ तक अपूर्वकरण गुणस्थान में नामकर्म की कर्मप्रकृतियों के बन्ध-विच्छेद या संवर का प्रश्न है, पूर्ववर्ती सातवें गुणस्थान में कथित ३६ कर्मप्रकृतियों का पूर्ववत् अभाव होता ही है, किन्तु उसके साथ ही (१) देवगति (२) पंचेन्द्रिय जाति (३) वैक्रिय शरीर (४) आहारक शरीर (५) तैजस शरीर (६) कार्मण शरीर (७) समचतुरस्त्र संस्थान (५) वैक्रिय अंगोपांग (६) आहारक अंगोपांग (१०) वर्ण (११) गंध (१२) रस (१३) स्पर्श (१४) देवगति (१५) आनुपूर्वी (१६) अगुरुलघु (१७) पराघात (१८) उच्छ्वास (१६) प्रशस्त विहायोगति (२०) त्रसनाम (२१) बादरनाम (२२) अपर्याप्तनाम (२३) प्रत्येक शरीर (२४) स्थिरनाम (२५) शुभनाम (२६) सुभगनाम (२७) सुस्वरनाम (२८) आदेयनाम (२६) निर्माणनाम और (३०) तीर्थंकर नाम-इन ३० कर्मप्रकृतियों का भी बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाता है । इसप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान में दर्शनावरणीय की ५, वेदनीय की १, मोहनीय की १७, नाम कर्म की ६६, गोत्रकर्म की १, आयुष्य कर्म की ४-इस प्रकार ६८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर बताया गया है।
नवें अनिवृत्तिकरणबादर नामक गुणस्थान में पूर्ववर्ती अपूर्वकरण गुणस्थान में बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हुई कर्मप्रकृतियों के अतिरिक्त मोहनीय कर्म की पाँच कर्मप्रकृतियाँ अर्थात् पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ-इन पांच का क्रमशः बन्ध-विच्छेद अथवा संवर हो जाता है । इस प्रकार इस गुणस्थान के अन्त में १०३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर कहा जाता है ।
दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के प्रारम्भ में मन्द कषाय अर्थात् सूक्ष्म लोभ का उदय रहने पर ज्ञानावरणीय की पांचो अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कर्मप्रकृतियाँ; दर्शनावरण की चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन-इन चार कर्मप्रकृतियों; नामकर्म की यशनाम कर्म; गोत्रकर्म की उच्चगोत्र तथा अन्तराय कर्म की दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यांतराय-इन पांचो कर्मप्रकृतियों का बन्ध रहता है, किन्तु
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