Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{292} होते हैं, अतः इसमें अल्प-बहत्व को लेकर अनिश्चितता होती है, फिर भी सामान्यतया सम्पूर्ण काल की पर उपशमक और उपशान्त जीवों की अपेक्षा क्षपक और क्षीणमोह जीवों की संख्या अधिक ही होती है, क्योंकि श्रेणी के सम्पूर्ण काल की अपेक्षा जहाँ उपशमक और उपशान्त जीव एक, दो, तीन आदि नियत संख्या में होते हैं, वहाँ क्षपक और क्षीणमोह गुणस्थानवी जीव की उत्कृष्ट संख्या शत पृथक्त्व मानी गई है। क्षपक जीवों की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि जहाँ क्षपक जीवों की संख्या शत पृथक्त्व मानी गई है, वहीं सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या कोटिपृथक्त्व अर्थात् दो से नौ करोड़ तक होती है। उनकी अपेक्षा अप्रमत्त मुनियों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि उनकी संख्या दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक हो सकती है। पुनः अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक कही गई है, क्योंकि ये जीव दो हजार से लेकर नौ हजार करोड़ हो सकते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा देशविरति गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि देशविरति गुणस्थान न केवल मनुष्यों में अपितु तिर्यंच-पंचेन्द्रियों में भी पाया जाता है। देशविरति गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा सास्वादन गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इस गुणस्थान का यह अल्प-बहुत्व सर्वकाल की अपेक्षा से ही है, क्योंकि कभी-कभी सास्वादन गुणस्थानवी जीवों की संख्या जघन्य से एक या दो भी हो सकती है और कभी-कभी नहीं भी होती है। इनकी अपेक्षा मिश्र गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु स्मरण रहे मिश्र गुणस्थान में जब जीवों की उत्कृष्ट संख्या होती है, तभी यह अल्प-बहुत्व घटित होता है। मिश्र गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की संख्या तीन गतियों अर्थात् मनुष्य, देव, नारक की अपेक्षा असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु तिर्यंच जीवों की अपेक्षा से अनन्तगुणा अधिक होती है, क्योंकि तिर्यच जीव अनन्त हैं। मिश्र गुणस्थान में वे ही जीव होते हैं जो अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से पतित होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा नारक, देव और मनुष्य गति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या उत्कृष्ट स्थिति में असंख्यगुणा अधिक होती है, किन्तु तिथंच गति में सम्यग्दृष्टि जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनन्तगुणा अधिक होती है, क्योंकि निगोद के जीव नियम से मिथ्यात्वी ही होते हैं, उनकी संख्या अनन्तानन्त है। जहाँ तक गर्भज मनुष्यों का प्रश्न है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों की संख्या संख्यात गुणा अधिक होती है, क्योंकि गर्भज मनुष्यों की संख्या संख्यात ही है। भवस्थ अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या क्षपक श्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों के समतुल्य ही होती है, क्योंकि उनकी संख्या उत्कृष्ट रूप से शत पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ तक मानी गई है। अभवस्थ अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या सर्वकाल की अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं।
इस अल्प-बहुत्व की चर्चा के पश्चात् पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक-८३ में चौदह गुणस्थानों के नाम का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है। अनुभाग और रस की अपेक्षा कर्मबन्ध की चर्चा में गुणस्थान :___ पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की पचासवीं गाथा में अनुभाग या रस की अपेक्षा से कर्मबन्ध की चर्चा करते हुए गुणस्थानों का निर्देश हुआ है। इसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का बन्ध क्यों नहीं करता? इसका कारण यह है कि केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण, दोनों ही, घाती कर्म होने से अशुभ (पाप) प्रकृति माने गए हैं, और क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा अति विशुद्ध परिणाम वाली होती है, अतः वह केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण अर्थात् केवली द्विक का बन्ध नहीं करती है । इसी प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव हास्य रति भय और जुगुप्सा, इन चार कर्मप्रकृतियों का रसबन्ध नहीं करता है, क्योंकि ये चारों ही अशुभ (पाप) प्रकृतियाँ हैं और शुभ अध्यवसाय वाला जीव अशुभ कर्म-प्रकृति का बन्ध नहीं कर सकता है। जहाँ तक सुभग आदि एक स्थानक रस
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