Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{299} तथास्वभाव से वहाँ से गिरकर चौथे या पहले गुणस्थान में चला जाता है, तीसरे गुणस्थान में जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को वेदनीय और आयुष्य कर्म के बिना छः कर्मों की उदीरणा होती है। अप्रमत्त भाव में रहता जीव, वेदनीय और आयुष्यकर्म की उदीरणा नहीं करता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में क्षपकश्रेणी से आरोहित आत्मा को, मोहनीय का क्षय करते समय, जब एक आवलिका काल शेष रहे, तब मोहनीय के बिना पाँच कर्म की उदीरणा होती है। उपशमश्रेणी से आरोहित आत्मा को मोह की सत्ता ज्यादा होने से इस गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त छः कर्मों की उदीरणा होती है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चरमावलिका से लेकर क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा को मोहनीय, वेदनीय और आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। क्षीणमोह गुणस्थान की चरमावलिका में जब ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती। इसीलिए उन्हें मात्र नामकर्म और गोत्र कर्म की ही उदीरणा होती है। इसप्रकार क्षीणमोह गुणस्थान की चरम आवलिका से सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक नाम और गोत्र-इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है। सूक्ष्म या बादर किसी भी प्रकार का योग नहीं होने से अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते हैं। योग होने पर ही उदीरणा होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को योग नहीं है, अतः वहाँ उदीरणा भी नहीं है।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की छठी गाथा में वेदनीय और आयुष्य कर्म के बिना शेष छः कर्मों की उदीरणा कब होती है, इस बात का विवेचन किया है। वेदनीय और आयुष्य के बिना शेष छः कर्मों का जब तक उदय होता है, तब तक उदीरणा होती है। कोई भी कर्म की सत्ता में एक आवलिका स्थिति शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। वेदनीय और आयुष्य कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। ज्ञातव्य है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे वेदनीयकर्म और आयुष्यकर्म की उदीरणा नहीं होती है, यद्यपि उन दोनों कर्मों का देशोनपूर्वकोटि तक मात्र उदय रहता है। यहाँ पर देशोनपूर्वकोटि काल सयोगीकेवली गुणस्थान के काल की अपेक्षा जानना चाहिए, आगे के गुणस्थानों में इनकी उदीरणा नहीं होने का कारण तद्रूप परिणामों का अभाव है।
सभी कर्मों की अद्धाआवलिका शेष रहे, तब उनका उदय होने पर भी उनकी उदीरणा नहीं होती है।
अद्धाआवलिका का अर्थ इस प्रकार हैं-आवलि अर्थात् पंक्ति या श्रेणी। यहाँ काल की पंक्ति, ऐसा अर्थ लेने हेतु अद्धा शब्द को ग्रहण किया गया है। अद्धाआवलिका, अर्थात् एक आवलिका जितने काल में भोगने योग्य कर्मदलिक जब शेष रहे, वह अद्धाआवलिका है। इस काल में उदय होता है, परन्तु उदीरणा नहीं होती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और आयुकर्म का अपनी-अपनी पर्यन्तावलिका में उदय होता है, फिर भी इनकी उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उदीरणा का लक्षण तो यह है कि उदय समय से आरंभ कर एक आवलिका जितने समय में उन्हें भोगा जा सके, ऐसी कर्मदलिकों की निषेक रचना करना। उदय आवलिका के समीप के स्थानों में रहे हुए कर्मदलिकों को कषाययुक्त या कषायरहित योगवाला, अपने वीर्य विशेष से खींचकर, उन्हें उदय आवलिका के कर्मदलिकों के साथ भोगने योग्य बना देता है, उसे उदीरणा कहते है। जब कोई भी कर्म की एक आवलिका सत्ता शेष रहे, तब उस आवलिका के अतिरिक्त कोई भी कर्म स्थिति स्थान नहीं होता है कि जिसमें रहे हुए कर्मदलिक खींचकर भोगने योग्य बनाया जा सके, इसीलिए किसी भी कर्म की सत्ता एक आवलिका मात्र शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है, परंतु उदय होता है। नाम और गोत्रकर्म का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होता है, परन्तु योग के अभाव के कारण उदीरणा नहीं होती है। नामकर्म, गोत्र और वेदनीयकर्म की चरम आवलिका चौदहवें गुणस्थान में शेष रहती है, परंतु योग के अभाव के कारण वहाँ उनकी उदीरणा नहीं होती है।
नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय तक और वेदनीय कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। आयुष्यकर्म के उदय की चरम आवलिका, उपशमश्रेणी में तीसरे गुणस्थान को छोड़कर, ग्यारहवाँ उपशान्तमोह गुणस्थान तक सम्भव हो सकती है, क्योंकि तीसरे गुणस्थान में रहा हुआ जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है, किन्तु उपशान्तमोह
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