Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
पंचम अध्याय.......(306) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। दर्शनमोहनीय त्रिक का क्षय करने के लिए उद्यमवंत अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणश्रेणी करती है । वह अविरत आत्मा प्रथम तीनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग में जिस गुणस्थान में होती हैं, उसी गुणस्थान में रहती है और उस भव में उसे उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यदि उस आत्मा ने नरकायु का बन्ध किया हो और गुणश्रेणी का शिरोभाग प्राप्त होने से पहले ही मरकर नारकी में उत्पन्न हो, तो भी गुणश्रेणी के शिरोभाग में रहते हुए उसे पूर्वोक्त दुर्भगादि चार और नरकद्विक-इन छः प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। क्वचित् असंख्यात वर्ष के आयुवाले तिर्यंच की आयु का बन्ध किया हो और मरकर तिर्यंच हो, तो उसे तिर्यंचद्विक के साथ पूर्वोक्त चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यदि उसने युगलिया मनुष्य सम्बन्धी आयु बांधी हो और मरकर मनुष्य हो, तो उसे मनुष्यानुपूर्वी सहित पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है ।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ अठारहवीं गाथा में अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव को होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशोदय का विवेचन किया है। कोई भी मनुष्य दूसरी, तीसरी और चौथी गुणश्रेणी करे और गुणश्रेणी के शिरोभाग में जिस गुणस्थान में हो, उस गुणस्थान में रहते हुए, उस मनुष्य को प्रथम संघयण के अतिरिक्त पाँच संघयण में से जिसका उदय होता है, उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। आहारक शरीरवाले अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के पहले समय में जितने स्थानों में गुणश्रेणी होती है, उसी के चरम समय में आहारक सप्तक और उद्योतनामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता :
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ तेंतीसवीं गाथा में सत्ता का और सत्ता के स्वामी का विवेचन किया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय तक निद्राद्विक की सत्ता रहती है, अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव निद्राद्विक की सत्ता के स्वामी हैं। क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय तक पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों की सत्ता होती है। इन प्रकृतियों के स्वामी भी बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव हैं। चारों आयुष्य की सत्ता अपने - अपने भव पर्यन्त होती है।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ चौंतीसवीं गाथा में मिथ्यात्व मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता का विवेचन किया है। मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्र - इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है, किन्तु अविरतसम्यग्दृष्टि
स्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक मिथ्यात्वमोह की सत्ता विकल्प से होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन करके जिन्होंने मिथ्यात्व का क्षय किया है, उनमें मिथ्यात्वमोह की सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम सम्यक्त्व वाले जीवों में मिथ्यात्वमोह की सत्ता होती है। क्षीणमोहादि गुणस्थान में मिथ्यात्वमोहनीय की सत्ता का अभाव होता है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक मात्र सास्वादन गुणस्थान को छोड़कर दस गुणस्थानों में से किसी समय सत्ता होती है और किसी समय सत्ता नहीं होती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अभव्य को और जिसने आज तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है ऐसे भव्य को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता नहीं होती है किन्तु सम्यक्त्व से गिरे हुए भव्यों में, जब तक उद्वर्त्तना नहीं की है, तब तक इसकी सत्ता होती है । ऊपर
गुणस्थानों से गिरकर मिश्रदशा प्राप्त करे, तो उसे भी मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है । पहले गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की उद्वर्तना कर मिश्रदशा प्राप्त करे, तो उसमें इसकी सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम- क्षायोपशम सम्यक्त्वी में होती है, इसीलिए दस गुणस्थानों में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है। बारहवें से चौदहवें गुणस्थानों में नहीं होती है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ पैंतीसवीं गाथा में मिश्रमोहनीय और अनन्तानुबन्धी की सत्ता की विवेचना की है। सास्वादन और मिश्रगुणस्थानवर्ती आत्मा को मिश्र मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा में
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