Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में
पंचम अध्याय.......{320} ग्रन्थ हमें प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध नहीं हो सका है, किन्तु विद्वानों की सूचना के अनुसार प्राचीन षडशीति और नवीन षडशीति में न केवल गाथाओं का साम्य है, अपितु विषय वस्तु का भी साम्य है । अतः प्राचीन षडशीति में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन सम्भव होगा, उसे देवेन्द्रसूरि कृत नवीन षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ के प्रसंग में ही समझा जा सकता है । अतः यहाँ स्वतन्त्र रूप से उसकी चर्चा न करके नवीन षडशीति कर्मग्रन्थ के प्रसंग में ही इसके गुणस्थान सम्बन्धी विवरण को देखने का अनुरोध करते हैं ।
सार्ध शतक :
जैन कर्म साहित्य के सम्बन्ध में एक अन्य महत्वपूर्ण कृति अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि की है । यह कृति इसकी गाथा संख्या के आधार पर सार्धशतक के नाम से जानी जाती है । इसमें १५५ गाथाओं में कर्म सम्बन्धी विवरण है । यह कृति लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध या बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की होना चाहिए, क्योंकि इस पर अज्ञातकृत भाष्य मुनिसुदंरसूरि कृत चूर्णि, चक्रेश्वरसूरि कृत प्राकृत वृत्ति, धनेश्वरसूरि कृत टीका एवं अज्ञानकृत टिप्पण उपलब्ध है | चूर्णि और टीका विक्रम संवत् ११७०-११७१ में लिखी गई है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूल कृति कम से कम ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण या बारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में लिखी गई है । इस ग्रन्थ की विषय वस्तु कर्मो की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि से सम्बन्धित है । मूल ग्रन्थ अनुपलब्ध होने से यह बता पाना कठिन है कि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा क रूप में उपलब्ध है ।
'गुणस्थान की अवधारणा........
नवीन पंच कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त
श्वेताम्बर परम्परा में कर्म सिद्धान्त के अध्ययन की दृष्टि से जो ग्रन्थ सर्वाधिक प्रचलित है, वे नव्य कर्मग्रन्थों के रूप में जाने जाते हैं । नव्य कर्मग्रन्थ पांच हैं । इनके लेखक तपागच्छ के संस्थापक जगच्चंद्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि हैं । देवेन्द्रसूरि का काल विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और चौदहवीं शताब्दी का पूवार्द्ध माना जाता है । इनका स्वर्गवास विक्रम संवत् १३२७ तदनुसार ईस्वी सन् १२७० में हुआ था । देवेन्द्रसूरि जैनदर्शन के, विशेषरूप से कर्म सिद्धान्त के, गहन अध्येता थे । इन्होंने प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों के आधार पर पांच कर्मग्रन्थों की न केवल रचना की, अपितु उन पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी । इन्होंने अपने नवीन पंच कर्मग्रन्थों के नाम भी वही रखे हैं । इनके द्वारा रचित पंच कर्मग्रन्थ हैं - (१) कर्मविपाक (२) कर्मस्तव ) बन्धस्वामित्व ( ४ ) षडशीति और (५) शतक । ये नव्य कर्मग्रन्थ भी प्राकृत भाषा एवं आर्या छन्द में रचित हैं । इन नव्य कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त का प्रतिपादन किस रूप में हुआ है, इसकी विस्तृत चर्चा करने से पूर्व एक सामान्य दृष्टि से अवलोकन कर लेना आवश्यक है ।
नव्य पंच कर्मग्रन्थों में प्रथम कर्मग्रन्थ कर्मविपाक है । इसमें कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों की विस्तार से चर्चा की गई है । इस प्रथम कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है ।
गुणस्थान सम्बन्धी विशिष्ट चर्चा कर्मस्तव नाम के द्वितीय कर्मग्रन्थ में मिलती है । इस ग्रन्थ में मात्र ३४ गाथाएं हैं, फिर भी इस ग्रन्थ में किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है तथा कितनी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं, इसकी सुव्यवस्थित चर्चा मिलती है । इसप्रकार गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से यह द्वितीय कर्मग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे |
तृतीय कर्मग्रन्थ बन्धस्वामित्व है । इसमें मार्गणास्थान और गुणस्थान दोनों की दृष्टि से कर्मबन्ध की चर्चा की गई है । जहाँ मार्गणास्थानों में जीवों के शारीरिक और ऐन्द्रिक विकास की चर्चा की जाती है, वहीं गुणस्थानों में कर्मों के क्षय-उपशम के आधार पर आध्यात्मिक विकास की चर्चा की जाती है । इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें पहले विभिन्न मार्गणाओं में
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