Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 381
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय ........{333} होता है। वेदमार्गणा में नौ गुणस्थान, प्रथम कषाय चतुष्क में प्रथम के दो गुणस्थान, द्वितीय कषाय चतुष्क में प्रथम के चार गुणस्थान, तृतीय कषाय चतुष्क में प्रथम के पाँच गुणस्थान, संज्वलनत्रिक में प्रथम के नौ गुणस्थान, संज्वलन लोभ में प्रथम के दस गुणस्थान, अज्ञानत्रिक में प्रथम के दो अथवा तीन गुणस्थान, प्रथम के तीन ज्ञानों में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोहतक के नौ गुणस्थान, मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक गुणस्थान, केवलज्ञान में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ऐसे दो गुणस्थान, चक्षु और अचक्षुदर्शन में प्रथम से लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह गुणस्थान, अवधिदर्शन में चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के नौ गुणस्थान, केवलदर्शन में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - ऐसे दो गुणस्थान, अविरति चारित्र में प्रथम के चार गुणस्थान, देशविरति चारित्र में देशविरति गुणस्थान, सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रमत्तसंयतादि चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धि चारित्र में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय चारित्र में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान, यथाख्यात चारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान होते हैं । सम्यक्त्व मार्गणा में मिध्यात्व में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन सम्यक्त्व में सास्वादन गुणस्थान, मिश्र सम्यक्त्व में मिश्र गुणस्थान, उपशम सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ गुणस्थान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान, क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं । उपशम सम्यक्त्व वाले जीव परभव के आयुष्य का बन्ध नहीं करते हैं । इसी कारण से अविरतसम्यग्दृष्ट गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व वाले जीव देवायुष्य और मनुष्यायुष्य का बन्ध नहीं करते हैं, अतः देशविरति आदि गुणस्थानों में भी उपशम सम्यक्त्व वाले जीव देवायुष्य का बन्ध नहीं करते है । सामान्य से लेश्या मार्गणा में प्रथम की तीन लेश्यावाले जीव आहारकद्विक बिना ११८ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती प्रथम की तीन लेश्यावाले जीव तीर्थंकर नामकर्म बिना ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादनादि सभी गुणस्थानों में प्रथम के तीन लेश्यावाले जीवों की कर्मबन्ध की स्थिि सामान्य कथन के अनुसार ही है । बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ के मतानुसार प्रथम की तीन लेश्या में प्रथम से लेकर चतुर्थ तक चार गुणस्थान होते हैं । षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की तेईसवीं गाथा के अनुसार प्रथम की तीन लेश्या में प्रथम से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक छः गुणस्थान होते हैं । यह मतान्तर अलग-अलग अपेक्षा से बताया गया है । तेजोलेश्या में सूक्ष्मत्रिक, विकलेन्द्रियत्रिक और नरकत्रिक-इन नौ प्रकृतियों के बिना १११ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इनमें भी मिथ्यात्व गुणस्थान में तेजोलेश्यावाले जीव को तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक बिना १०८ का, सास्वादन गुणस्थान में दर्शनसप्तक के बिना १०१ का, मिश्र गुणस्थान में ७४ का, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ का, देशविरति गुणस्थान में ६७ का, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ६३ का और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ५८ या ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । पद्मलेश्या में प्रथम के सात गुणस्थान हो है। पद्मलेश्यावाले जीवों में सामान्य से नरकादि बारह प्रकृतियों के बिना १०८ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीव को १०५ का, सास्वादन पद्मलेश्यावाले जीव को १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। आगे के सभी गुणस्थानों में तेजोलेश्यावाले जीवों के समान कर्मबन्ध की स्थिति है । शुक्लले श्यावाले में एक से लेकर तेरह गुणस्थान होते हैं । शुक्लले श्यावाले में कर्मबन्ध की स्थिति पद्मलेश्यावालों के समान ही है, परन्तु विशेष यह है कि शुक्ललेश्या में नरकादि बारह और उद्योतचतुष्क-इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १०४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव १०१, सास्वादन गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव ६७, मिश्र गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव ७४ और अविर गुणस्थानवर्ती शुक्लले श्यावाले जीव ७७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । देशविरति आदि अग्रिम गुणस्थान में कर्मबन्ध की स्थिति सामान्य कथन के अनुरूप ही है । भव्य और संज्ञी मार्गणा में चौदह गुणस्थान होते हैं । भव्य और संज्ञी मार्गणा मे बन्ध की स्थिति सामान्य कथन के अनुसार ही है । अभव्य मार्गणा में मात्र प्रथम गुणस्थान ही होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अभव्य जीव तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक बिना ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । असंज्ञी मार्गणा में पहला और दूसरा- ऐसे दो गुणस्थान होते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती असंज्ञी जीव ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती असंज्ञी जीव, संज्ञी पंचेन्द्रिय के समान . १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते है । आहारमार्गणा में प्रथम से लेकर तेरह गुणस्थान होते है। इन तेरह गुणस्थानों में बन्ध अपने-अपने गुणस्थान के सामान्य बन्ध के अनुसार जानना चाहिए । अनाहारी मार्गणा में बन्ध कार्मणकाययोग के अनुसार समझना चाहिए । इस प्रकार यहाँ बन्धस्वामित्व नामक तीसरे कर्मग्रन्थ का गुणस्थान सम्बन्धी विवरण समाप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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