Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{235} गुणस्थान के समान ही है । दसवीं जिन अवस्था सयोगी केवली गुणस्थान के समान है ।
गुणस्थान सिद्धान्त में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी को जो आ णस्थान से समानान्तर माना जाता है, इस बात का इन दस अवस्थाओं में अभाव है । वस्तुतः इन दस अवस्थाओं में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी को अलग न मानकर उपशम के बाद ही क्षपक श्रेणी प्रारम्भ होती है, ऐसा माना गया है । सम्यग्दृष्टि, श्रावक और विरत ये तीनों अवस्थाएं औपशमिक सम्यग्दर्शन और व्यवहार चारित्र की सूचक है। हम इन्हें दर्शनमोह उपशमक और दर्शनमोह उपशान्त की अवस्था कह सकते हैं । अनन्तवियोजक और दर्शनमोह क्षपक को क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और दर्शनमोह के क्षीण होने की अवस्था कह सकते हैं । अग्रिम चार अवस्थाएं चारित्रमोह के उपशम और क्षय की सूचक हैं । कषाय-उपशान्त, कषाय-उपशमक, कषाय-क्षपक, और क्षीणमोह - इन चारों अवस्थाओं का सम्बन्ध अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को छोड़कर अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन कषाय और नोकषायों के पहले उपशम फिर क्षय से है । इनका स्पष्ट और अलग-अलग उल्लेख होने से यह विदित होता है कि आत्म विकास की चर्चा में पहले उपशमश्रेणी से कर्मों का उपशम कर और फिर क्षपक श्रेणी से क्षय की चर्चा की गई है। इन दस अवस्थाओं का ही विकसित रूप गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा है । इन अवस्थाओं को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में गुणश्रेणी के नाम से जाना जाता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह की टीका में उपशमक को उपशमश्रेणी के वें से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान का धारक माना गया है । इसी प्रकार क्षपक को क्षपकश्रेणी के ८ वें अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर १० वें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक और बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान का धारक माना गया है।
गस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में सवार्थसिद्धि टीका के इस समग्र अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सवार्थसिद्धिकार पूज्यपाद देवनन्दी के समक्ष गुणस्थानों की स्पष्ट अवधारणा उपस्थित थी । यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र में न केवल गुणस्थानों का उल्लेख किया है, अपितु सत्संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन भी किया है । इसी प्रकार दूसरे अध्याय के छठे सूत्र में लेश्याओं की चर्चा करते हुए यह बताया है कि उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली गुणस्थानों में जो शुक्ललेश्या का सद्भाव माना गया है, वह किस अपेक्षा विशेष से है ? पुनः अध्याय आठवें के सूत्र एक, सत्रह और बीस में बन्धहेतु, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एवं जघन्य स्थितिबन्ध की चर्चा करते हुए गुणस्थानों का उल्लेख किया है । विशेष रूप से इस चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच बन्ध के हेतु है, उनमें से किस गुणस्थान में कितने बन्धहेतु रहते हैं और कितने बन्धहेतुओं का विच्छेद हो जाता है । संक्षिप्त में कहे तो मिथ्यात्व गुणस्थान में पांचों बन्धहेतु रहते हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक मिथ्यात्व का अभाव होकर शेष चार बन्धहेतु रहते हैं । संयतासंयत में भी अविरति की अपेक्षा से चार और आंशिक विरति की अपेक्षा से तीन और सामान्यतः चार बन्धहेतु रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तीन ही बन्धहेतु रहते हैं । आगे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक कषाय और योग-दो बन्धहेतु रहते हैं, परन्तु उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगीकेवली में योग नामक एक ही बन्धहेतु रहता है । अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्ध हेतु नहीं रहता है । इसके आगे नवें अध्याय के सूत्र एक, दस, चौतीस, पैंतीस, छत्तीस, अड़तीस और पैंतालीस (१, १०, ३४, ३५, ३६, ३८ और ४५)-ऐसे सात सूत्रों में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश प्राप्त होते हैं। सूत्र एक में यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद होता है। साथ ही यहाँ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का भी सुंदर ढंग से विवेचन किया है । नवें अध्याय के दसवें सूत्र में परिषहों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि किस
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