Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
चतुर्थ अध्याय.......{259} 'सम्यग्दृष्ट्यादि गुणस्थानानाम्'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख होने से हम यह मान सकते हैं कि सिद्धसेनगणि यहाँ पर गुणस्थानों का निर्देश कर रहे हैं । यद्यपि इन नामों के निर्देश के अलावा इन गुणस्थानों के सन्दर्भ में उन्होंने कोई विशेष चर्चा प्रस्तुत नहीं की है।
___ तत्त्वार्थसूत्र की भाष्य आधारित सिद्धसेनगणि की इस टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का यत्र-तत्र प्रसंगोपात निर्देश हुआ है । जैनदर्शन की विभिन्न अवधारणाओं के सम्बन्ध जहाँ उन्हें योग्य प्रतीत हुए, वहाँ गुणस्थानों का अवतरण भी किया है। इस अध्ययन से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान की अवधारणा और उसकी सूक्ष्मताओं से सुपरिचित रहे हैं । स्थान-स्थान पर उन्होंने गुणस्थान के लिए स्थान या गुणस्थान शब्द का भी प्रयोग किया है, फिर भी इस सम्पूर्ण टीका में एक भी स्थल हमें ऐसा नहीं मिला है, जहाँ उन्होंने एक साथ चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश करके उनके स्वरूप को स्पष्ट किया है। गुणस्थानों के सन्दर्भ में किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, इसकी कोई चर्चा सिद्धसेनगणि ने की है, तो वह सामान्यतः कर्मग्रन्थों पर आधारित प्रतीत होती है । इस समग्र चर्चा में हमें जो सामान्य अवधारणाएं प्रचलित रही हैं, उससे कोई भी प्रतिपत्ति परिलक्षित नहीं होती है।
आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थ भाष्यटीका और गुणस्थान
आचार्य हरिभद्रसूरि जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के एक प्रतिभा सम्पन्न बहुश्रुत आचार्य हैं । अनुश्रुति से यह माना जाता है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की; किन्तु वर्तमान में उपलब्ध लगभग ७५ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिन्हें सामान्यतया आचार्य हरिभद्र की रचना माना जाता है । ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में हरिभद्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । अतः ये सभी ग्रन्थ 'याकिनीसूनु' के नाम से प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र की ही रचना है, यह कहना कठिन है। फिर भी उपलब्ध ग्रन्थों में ४५ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिन्हें विद्वानों ने निर्विवाद रूप से याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की रचना स्वीकार किया है । आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ग्रन्थों में मुख्यतया दो प्रकार के ग्रन्थ हैं। एक आगम ग्रन्थों और पूर्वाचार्यों र्की प्रकृतियों पर उनकी टीकाएं और दूसरे उनके स्वरचित ग्रन्थ
और उनकी स्वोपज्ञ टीकाएं । आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ग्रन्थों में विषय वैविध्य ही बहुत है । जहाँ उन्होंने एक और समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि अनेक कथाग्रन्थ लिखे, वहीं दूसरी और उन्होंने जैन धर्म और दर्शन पर अनेक गम्भीर ग्रन्थ भी रचे हैं । यहाँ उनके द्वारा रचित विशाल साहित्य के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना सम्भव नही है। चूँकि हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः हम यहाँ उन्हीं ग्रन्थों की चर्चा करना आवश्यक समझते हैं, जिनका सम्बन्ध गुणस्थान विवेचन से रहा है । प्रस्तुत प्रसंग में हम जिन आचार्य हरिभद्र का संकेत कर रहे हैं, उन्हें हरिभद्र नामक अन्य आचार्यों से पृथक् करने के लिए विद्वानों ने दो आधार माने हैं । प्रथम तो यह कि आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति आकर्षित करनेवाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी। आचार्य हरिभद्र ने उन्हें धर्ममाता के रूप में स्वीकार किया है और अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों पर 'याकिनीसूनु' अर्थात् याकिनी का धर्मपुत्र-ऐसा कहा । दूसरे उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने उपनाम 'भवविरह' का भी उपयोग किया है । इन दो विशेषणों की उपलब्धि के आधार पर आचार्य हरिभद्र की रचनाओं को अन्य हरिभद्र नामक आचार्यों से पृथक करने में काफी सुविधा हो जाती है । आचार्य हरिभद्र की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में अन्य धर्मों के दर्शन के प्रति जैसा उदार भाव प्रदर्शित किया है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है । यही कारण है कि याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र को समदर्शी हरिभद्र के नाम से भी जाना जाता है । जहाँ तक समदर्शी आचार्य हरिभद्र के काल का प्रश्न है, विचारश्रेणी नामक ग्रन्थ में आचार्य मेरुतुंग ने उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना है । यदि इसे विक्रम संवत् के स्थान पर शक् संवत् माना जाए, तो ऐसी स्थिति में ५८५+१३५ अर्थात् विक्रम संवत् ७२० हो सकता है, क्योंकि अनेक स्थलों पर शक संवत् का भी विक्रम के रूप
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