Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{275} पंचसंग्रह के पंचमद्वार की पाँचवीं गाथा में किस गुणस्थानवी जीव को कितने कर्म की उदीरणा होती है, इसकी चर्चा की गई है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव आठों ही कर्मों की उदीरणा करते हैं । अप्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सभी जीव वेदनीय और आयुष्य को छोड़कर, छः कर्मों की उदीरणा करते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष पांच कर्मों की उदीरणा करते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव नाम और गोत्र-दो कर्मों की उदीरणा करते हैं।
कर्म के उदय और उदीरणा में मुख्य अन्तर यह है कि कर्मों का उदय स्वाभाविक रूप से होता है, जबकि उदीरणा में सत्ता में रहे हुए कर्मवर्गणाओं को प्रयास पूर्वक उदय में लाकर उनका क्षय किया जाता है। उदीरणा के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि वेदनीय और आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों का जब तक उदय होता है, तब तक उनकी उदीरणा भी सम्भव होती है, किन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जिस कर्म की सत्ता की स्थिति एक आवलिका मात्र हो उनकी उदीरणा सम्भव नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है, क्योंकि उन्हीं कर्मों की उदीरणा सम्भव होती है, जिनकी सत्ता एक आवलिका से अधिक हो । आवलिका के बाद ऐसा कोई काल नहीं होता है जिसमें सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों को खींचकर उदयावलिका में प्रवेश कराया जा सके । आगे यह भी बताया गया है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही सम्भव होती है। इन तीन को छोड़कर शेष जिन कर्मप्रकृतियों का उदय अयोगीकेवली गुणस्थान तक होता है, उनकी उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव होती है । सामान्यतया जिन कर्मप्रकृतियों का उदय नहीं है, उनकी उदीरणा भी सम्भव नहीं है । गुणस्थान सिद्धान्त की आधारभूमि-गुणश्रेणी :___ गुणश्रेणी शब्द मूलतः गुण और श्रेणी शब्दों से मिलकर बना है। इसमें 'गुण' शब्द का अर्थ अध्यवसायों की विशुद्धि लिया जाता है। इस आधार पर यह माना जाता है कि अध्यवसायों की विशुद्धि रूप विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए, पूर्वबद्ध एवं नवीन बन्ध को प्राप्त हुए कर्मप्रदेशों को शीघ्रता से क्षय करने की प्रक्रिया या पद्धति गुणश्रेणी कही जाती है। इसप्रकार गुणश्रेणी में 'गुण' शब्द का अर्थ अध्यवसायों की विशुद्धि रूप 'गुण' और 'श्रेणी' का अर्थ कर्मप्रदेशों के क्षय के द्वारा उन गुणों को प्राप्त करने की प्रक्रिया, ऐसा होता है। सामान्यतया जैनाचार्यों ने इसी अर्थ में गुणश्रेणी शब्द का ग्रहण किया है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में गुण शब्द का अर्थ बन्धक तत्व अर्थात् कर्म किया है। संस्कृत भाषा में गुण शब्द रस्सी के अर्थ में आता है, जो बांधने का काम करता है। सांख्यदर्शन में गुण शब्द का प्रयोग प्रकृति के लिए हुआ है। वहाँ प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहा गया है। उसमें सत् , रज् और तम् - ऐसे तीन गुणों का उल्लेख मिलता है और इन गुणों को ही बन्धन का कारण माना गया है। आचारांगसूत्र में 'गुण' शब्द का प्रयोग इन्द्रियों के विषय या संसार के अर्थ में हुआ है। उसमें कहा गया है कि “जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे (१/१/५/६२)" प्रकारान्तर से यहाँ गुण को आसव के रूप में व्याख्यायित किया गया है। आस्रव को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। पारिभाषिक दृष्टि से कर्मवर्गणाओं का आत्मा की ओर आना आस्रव कहा जाता है। इन आधारों को ध्यान में रखते हुए डॉ. सागरमल जैन ने गुण शब्द को कर्मबन्ध के रूप में ग्रहण किया है और गुणस्थान को कर्म के विविध स्थानों के रूप में विवेचित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र में कर्म-निर्जरा की दस अवस्थाओं की चर्चा करते हुए 'असंख्येयगुणनिर्जरा' ऐसा शब्द आया है । इस प्रकार वहाँ भी गुण शब्द कर्म अथवा गुणित ही माना गया है । इस सूत्र में 'गुण' शब्द के दो ही अर्थ फलित होते हैं । यदि हम ‘गुण-निर्जरा' - ऐसे सम्पूर्ण शब्द का ग्रहण करते हैं, तो वहाँ गुण का अर्थ कर्म ही होता है । यदि 'असंख्येयगुणनिर्जरा'-ऐसे सम्पूर्ण शब्द को ग्रहण करते हैं, तो वहाँ गुण शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक गुणित और दूसरा कर्म। इसप्रकार इस सम्पूर्ण पद के अर्थ होंगे । (१) असंख्यात गुण-निर्जरा या (२) असंख्यातकर्मों की निर्जरा । इसी आधार पर गुणश्रेणी शब्द में गुण शब्द का अर्थ, कर्म-ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि गुणश्रेणी में कर्मदलिकों की इस प्रकार से संरचना की जाती है कि प्रति समय क्रमशः अधिक से अधिक कर्मप्रदेशों की निर्जरा हो
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