Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{289)
जीव भी लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । यद्यपि ये सिद्धशिला तक जाते हैं, किन्तु अयोगीकेवली गुणस्थान तो देहत्याग के साथ ही समाप्त हो जाता है । क्षेत्र स्पर्शना में जीवों के स्थानान्तरण की गति :
जीवों की गति दो प्रकार की मानी गई है । एक कुंदुंक गति और दूसरी इलिका गति । कुंदुक गति में आत्मा आत्मप्रदेशों का पिण्ड बनाकर उत्क्षेप से अन्य योनि में उत्पन्न होती है, किन्तु इलिका गति में पूर्व स्थान का त्याग किए बिना, आत्मप्रदेशों को उस स्थान तक ले जाकर, फिर वहाँ शरीर रचना कर आत्मप्रदेशों को समेट देती है। यहाँ जो क्षेत्र स्पर्शना की बात कही गई है, वह इलिका गति के आधार पर ही समझना चाहिए । जैसे इलिका अपने पूर्वस्थान को छोड़े बिना अपने अग्रभाग से अगले स्थान को ग्रहण करती है और पीछे के भाग को समेट लेती है, उसीप्रकार आत्मा भी अपने पूर्व शरीर से सम्बन्ध रखती हुई, नए शरीर को ग्रहण करके, वहाँ से आत्मप्रदेशों को समेट लेती है। इसी अपेक्षा से अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में क्षेत्र की स्पर्शना की योजना करनी चाहिए। यदि हम कुंदुंक गति मानेंगे, तो क्षेत्र स्पर्शना घटित नहीं होगी। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की तीसवीं गाथा से लेकर तेंतीसवीं गाथा तक, जो विभिन्न गुणस्थानों में स्पर्शना क्षेत्र का विचार किया गया है, वह सब इलिका गति के आधार पर ही किया गया है। विभिन्न गुणस्थानों की काल स्थिति :
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की छत्तीसवीं गाथा में गुणस्थानों की कालावधि का चित्रण हुआ है। सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की कालावधि का चित्रण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान तीन प्रकार का होता है। अनादि-अनन्त, अनादिसांत और सादि-सान्त। अभव्य जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो उनका मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि और अनन्त कहा गया है। मात्र यही नहीं, जो भव्य जीव सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकेंगे, उनका भी मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि अनन्तकालीन होता है। जिन जीवों ने एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श करके उसका वमन किया है, उन जीवों की अपेक्षा से उनका मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि और सान्त कहा गया है। जो जीव सम्यक्त्व को एक बार प्राप्त करके पुनः उसका वमन कर मिथ्यात्व अवस्था में चले जाते हैं, किन्तु कालान्तर में पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा से मिथ्यात्व की कालावधि सादि और सान्त होती है। सादि और सान्त कालावधि में सर्वाधिक अर्थात् उत्कृष्ट दृष्टि से विचार करे तो कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक वे मिथ्यात्व में रहते हैं। न्यूनतम या जघन्य अपेक्षा से सादि और सान्त मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त भी हो सकता है।
सास्वादन गुणस्थान का काल छः आवलि और मिश्र गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त से लेकर कुछ अधिक तेंतीस सागरोपम हो सकता है । वेदक सम्यक्त्व का काल कुछ अधिक तेंतीस सागरोपम इस अपेक्षा से कहा गया है कि प्रथम संघयण के धारक कोई भव्य आत्मा सम्यक प्रकार से चारित्र का परिपालन करके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो और वहाँ से कालधर्म को प्राप्त करके पुनः मनुष्य गति में जन्म लेता है, किन्तु जब तक वह चारित्र का ग्रहण नहीं करता है, तब तक वह अविरतसम्यग्दृष्टि में रहता है। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि वेदक सम्यक्त्व का काल तेंतीस सागरोपम से कुछ अधिक होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त भी हो सकता है । यद्यपि यहाँ गाथा में देशविरति के काल की कोई चर्चा नहीं की गई है, परन्तु टीका में बताया गया है कि देशविरति गुणस्थान का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त, अधिकतम काल कुछ कम पूर्वकोटि पर्यन्त माना जाता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक समय से प्रारम्भ करके अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त माना गया है, क्योंकि मुनिजन प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों के बीच संक्रमण करते रहते हैं, यद्यपि छठे और सातवें गुणस्थान में वर्तन करते हुए कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष तक रह सकते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और अधिकतम अन्तर्मुहूर्त माना गया है। क्षीणमोह गुणस्थान का काल और अयोगीकेवली गुणस्थान का काल भी अधिकतम अन्तर्मुहूर्त माना गया
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