Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
चतुर्थ अध्याय........{233}
सर्वार्थसिद्धि में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एवं जघन्य स्थितिबन्ध :
पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में आठवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र और बीसवें सूत्र की हिन्दी व्याख्या के अनुसार आयुष्यकर्म की स्थिति तेंतीस सागरोपम की है । इस उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है, क्योंकि मिध्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होने के कारण वह नरक आयुष्य का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य गुणस्थानों में आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता है ।
बीसवें सूत्र के विशेषार्थ में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयुष्य और अन्तराय कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । मोहनीय कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में और आयुष्य कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों और मनुष्यों को होता है ।
आठवें अध्याय के तेईसवें सूत्र के विशेषार्थ में निर्जरा की चर्चा करते हुए यह बताया गया अनुभावबन्ध अलग-अलग है । प्रकृतिबन्ध सकषाय होता है और अनुभावबन्ध मात्र योग निमित्त होता है। तेरहवें गुणस्थान में योग प्रक्रिया होती है, अतः वहाँ मात्र सातावेदनीय का बन्ध हो सकता है ।
इस प्रकार हम देखते है कि सर्वार्थसिद्धि का हिन्दी अनुवाद करते हुए विशेषार्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में वे प्रश्न भी उठाए हैं, जो मूल में अनुपस्थित रहे है ।
कि प्रकृतिबन्ध और ग्यारहवें, बारहवे और
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति में कर्मक्षय की चर्चा :
पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में दसवें अध्याय के प्रथम सूत्र में केवलज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, यह बताया है । मोह कर्म का क्षय होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने से केवलज्ञान होता है । मोह का क्षय कर अन्तर्मुहूर्त काल तक क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त कर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का एक साथ क्षय कर आत्मा केवलज्ञान को प्राप्त करती है । परिणामों की विशुद्धि में वृद्धि को प्राप्त होती हुई असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासयंत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शन सप्तक अर्थात् अनन्तानुबन्ध 'चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोह का क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपक श्रेणी आरोहण करने के लिए सन्मुख होकर, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण को प्राप्त कर अपूर्वकरण के द्वारा अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त कर, वहाँ नूतन परिणामों की विशुद्धि से अनिवृत्तिकरण के द्वारा अनिवृत्तिबादरसंपराय क्षपक गुणस्थान को प्राप्त कर, वहाँ पर आठ कषायों का क्षय कर तथा नंपुसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से क्षय कर छः नोकषायों का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा क्षय कर पुरुषवेद का संज्वलन क्रोध में, संज्वलन क्रोध का संज्वलन मान संज्वलन मान का संज्वलन माया में और संज्वलन माया का संज्वलन लोभ में क्रम से बादर कृष्टि विभाग के द्वारा संक्रमण कर तथा संज्वलन लोभ को कृश कर सूक्ष्मसंपराय क्षपक गुणस्थान प्राप्त कर, मोहनीय की अठाईस प्रकृतियों का क्षय कर क्षीणकषाय गुणस्थान प्राप्त कर, उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का क्षय करके अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करती है ।
इसी दसवें अध्याय के द्वितीय सूत्र की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है कि बन्धहेतुओं के अभाव से नूतन कर्मों के आश्रव का अभाव हो जाता है और निर्जरा से में अर्जित कर्मों का क्षय हो जाता है, अन्त में आयुष्य कर्म के समान शेष कर्मों की स्थिति को कर लेने पर आयुष्य का क्षय होते ही उसका मोक्ष हो जाता है 1
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