Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.
चतुर्थ अध्याय........{255}
गुणस्थान को छोड़कर शेष छः गुणस्थानों से है। पूर्व में द्वितीय अध्याय के सैंतीसवें सूत्र की टीका में तथा प्रस्तुत सूत्र की टीका में जो स्थान शब्द का प्रयोग हुआ है, वह निश्चित ही गुणस्थान का सूचक है; यह माना जा सकता है । यद्यपि यह विचारणीय है कि सिद्धसेनगणि ने यहाँ गुणस्थानों की चर्चा करते हुए भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग न करते हुए मात्र स्थान शब्द का प्रयोग किया है, फिर भी द्वितीय अध्याय के सूत्र ३७ और सूत्र ५१ में गुणस्थानों की अवधारणा का निर्देश उपलब्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्र में मूलतः तो सप्त नरक पृथ्वियों का वर्णन है, किन्तु टीकाकार सिद्धसेनगणि ने यहाँ टीका में तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सैंतीसवें सूत्र को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि आज्ञा अपाय, विपाक और संस्थानविचय धर्म ध्यान अप्रमत्तसंयत को होता है । यद्यपि यहाँ सप्तम गुणस्थान का सूचक अप्रमत्तसंयत शब्द आया है, किन्तु यह विवेचन धर्मध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में है; अतः इसका गुणस्थान के सिद्धान्त से स्पष्टतः कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार हम देखते है कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम पांच अध्यायों की टीका में दूसरे अध्याय के सैंतीसवें और इक्यावनवें सूत्र की टीका को छोड़कर अन्यत्र कहीं गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का उल्लेख सिद्धसेनगणि ने नहीं किया है । दूसरे अध्याय के इक्यावन सूत्र की टीका में भी मात्र प्रथम सात गुणस्थानों का निर्देश हुआ है, किन्तु इस आधार पर यह तो अवश्य मानना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणि के सामने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा उपस्थित थी । गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का किंचित् विस्तृत विवरण हमें छठे अध्याय से लेकर दसवें अध्याय तक की सिद्धसेनगणि की टीका में मिलता है । आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेगें कि इन अध्यायों की टीका में सिद्धसेनगणि ने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का निर्देश किस रूप में किया है।
तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय के पांचवें सूत्र में साम्परायिक और ईर्यापथिक आसवों का विवेचन है । वहाँ यह भी बताया गया है कि ईर्यापथिक आसव, कषायों से रहित वीतराग को होता है । इसी विवेचना के प्रसंग में वीतराग के तीन भेदों उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली का उल्लेख हुआ है । इसके साथ-साथ यह भी कहा गया है कि संज्वलन कषाय में भी कषायों का उदय अत्यन्त मन्द होने के कारण अनुदश कन्या के समान कषायों के उदय का अभाव कहा गया है । यहाँ पर उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली-ऐसी तीन, गुणस्थानों से सम्बन्धित अवस्थाओं का उल्लेख है; किन्तु नामोल्लेख के अतिरिक्त यहाँ इन अवस्थाओं से सम्बन्धित विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है । विवेचन का मुख्य विषय तो केवल साम्परायिक और ईर्यापथिक का स्वरूप ही है। इसी क्रम में छठे अध्याय के पन्द्रहवें सत्र की टीका में देशविरति का उल्लेख हआ है, किन्तु यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशेष चर्चा प्राप्त नहीं होती है । पुनः इसी क्रम में संयमासंयम और सर्वविरति-इन दो अवस्थाओं का निर्देश है। संयमासंयम को क्वचित् निवृत्ति और क्वचित् प्रवृत्ति रूप कहा गया है । हमारी दृष्टि में इस विवरण को भी गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि देशविरति और सर्वविरति जैन धर्मदर्शन की सामान्य अवधारणा है, जिसका यहाँ उल्लेख हुआ है । इसप्रकार सिद्धसेनगणि ने छठे अध्याय की टीका में भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । आगे सातवें अध्याय के ग्यारहवें सूत्र की टीका में प्रमत्त (संयत), अप्रमत्त (संयत) का उल्लेख है । यहाँ यह भी कहा गया है कि प्रमत्तसंयत को कर्मबन्ध होता है । हमारी दृष्टि में यह चर्चा भी स्पष्ट रूप से गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सम्बन्धित नहीं है । इसी सातवें अध्याय के सोलहवें सूत्र में श्रावक के सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि ने श्रावक के लिए संयतासंयत शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु इस संयतासंयत शब्द के उल्लेख को गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। सामान्यतया प्राचीनकाल से ही गृहस्थ को संयतासंयत कहा जा रहा है । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थसूत्र की इस टीका में गुणस्थान सिद्वांत की अवधारणा का सर्वप्रथम सुस्पष्ट विवेचन आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में मिलता है । तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के इस प्रथम सूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ऐसे पांच बन्धहेतुओं का उल्लेख है । सिद्धसेनगणि
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