Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय.......{231} कारण क्वचित् ही होते हैं। (ब) रौद्रध्यान :
पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के नवें अध्याय के पैतीसवें सूत्र में रौद्रध्यान की व्याख्या करके कौन से गुणस्थानवी जीवों को रौद्रध्यान होता है, इस बात की चर्चा की है ।
___ हिंसा, असत्य, चोरी और विषय सेवन के लिए असद् चिंतन करना रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर देशविरत गुणस्थानवर्ती तक के जीवों को होता है । स्वयं पूज्यपाद देवनन्दी ही शंका करते है कि अविरतसम्यग्दृष्टि को तो रौद्रध्यान हो सकता है, परन्तु देशविरत को कैसे हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि हिंसादि के आवेश से अथवा वित्तादि के संरक्षण के कारण कदाचित् देशविरत को भी रौद्रध्यान हो सकता है, किन्तु देशविरत को होनेवाला रौद्रध्यान नरक आदि दुर्गतियों का कारण नहीं बनता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की ऐसी ही सामर्थ्यता है, परन्तु संयत को तो रौद्रध्यान होता ही नहीं है, क्योंकि इसका आरम्भ होने पर जीव संयम से पतित हो जाता है । निदान की अपेक्षा से संयमी में जो रौद्र या आर्तध्यान माना गया है, वह मात्र द्रव्य संयमी की दृष्टि से ही समझना चाहिए। (स) धर्मध्यान :
सर्वार्थसिद्धि के नवें अध्याय के छत्तीसवें सत्र की टीका में धर्मध्यान की व्याख्या की गई है। धर्मध्यान के चार प्रकार होते हैं । संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव को स्थिर बनाए रखने के लिए सम्यग्दृष्टि का जो प्रणिधान होता है, उसे धर्मध्यान कहते हैं। उसके निम्न चार प्रकार हैं - (१) आज्ञाविचय धर्मध्यान (२) अपायविचय धर्मध्यान (३) विपाकविचय धर्मध्यान और (४) संस्थानविचय धर्मध्यान । आज्ञाविचय धर्मध्यान तत्वनिष्ठा में सहायक होता है। अपायविचय धर्मध्यान संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति उत्पन्न करता है । विपाकविचय धर्मध्यान से कर्मफल और उस सम्बन्धित कारणों की विचित्रता का ज्ञान दृढ़ होता है । संस्थानविचय धर्मध्यान से लोकस्वरूप का ज्ञान दृढ़ होता है । इन चारों प्रकार के धर्मध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में होते हैं। (द) शुक्लध्यान :
पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में नवें अध्याय के अड़तीसवें सूत्र की टीका के अनुसार सूक्ष्मक्रियापतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति-ये दो शुक्ल ध्यान, जिनका समस्त ज्ञानावरण का नाश हो जाता है, ऐसे सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों को होते हैं ।
मिथ्यात्वमोह का उदय और उदीरणा दोनों ही मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व के अभिमुख जीव को अन्तिम आवलि काल शेष रहने पर मिथ्यात्व की उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। जातिचतुष्क, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म-इन नौ कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय और उदीरणा भी मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है, अग्रिम गुणस्थानों में नहीं होती है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र मोहनीय) का उदय और उदीरणा तीसरे गुणस्थान में ही होती है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं होती है ।
अप्रत्याख्यान चतुष्क, नरकगति, देवगति, वैक्रियद्विक, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अयशःकीर्ति नामकर्म-इन ग्यारह कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा चतुर्थ गुणस्थान तक ही होती है, अग्रिम गुणस्थानों में नहीं होती है। नरकायु ओर
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