Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय......{230} भी नहीं होता है, अतः उन्हें सिर्फ कषाय और योग दो ही बन्ध हेतु हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली-इन तीन गुणस्थानवी जीवों को कर्मबन्ध का हेतु मात्र योग ही होता है । अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों को योग भी नहीं रहता है, इसीलिए इस गुणस्थान में बन्धहेतु का अभाव हो जाता है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में लेश्या :
पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में दूसरे अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या करते हुए यह शंका उपस्थित की है कि आगमिक परम्परा में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थानों में शुक्ल लेश्या का सद्भाव माना है, किन्तु लेश्या को तो कषाय से अनुरंजित माना जाता है, अतः यह शंका उपस्थित होती है कि यदि इन गुणस्थानों में कषायों का उदय नहीं, तो फिर उनसे अनुरंजित शुक्ल लेश्या का सद्भाव इन गुणस्थानों में कैसे सम्भव हो सकता है ? पूज्यपाद देवनन्दी स्वयं इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि यहाँ कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि पूर्व काल में कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति परवर्ती काल में भी होती है । अतः पूर्व भाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थानों में योग प्रवृत्ति के सद्भाव के कारण लेश्या का सद्भाव भी माना जा सकता है । अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्था में योग प्रवृत्ति नहीं होती है, इसीलिए वह अवस्था लेश्या से रहित होती है । सिद्धान्ततः लेश्याएं कषाय और योग के निमित्त से होती हैं। यह भी सत्य है कि कषाय के निमित्त से योग प्रवृत्ति होती है और उस योग प्रवृत्ति से अनुरंजित लेश्या भी होती है, किन्तु कषायों के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर भी उन निमित्त से प्रारम्भ हुई योग प्रवृत्ति परवर्ती काल में जारी रहती है । जिस प्रकार बन्दूक से निकली हुई गोली की गति गोली चलाने का प्रयत्न समाप्त हो जाने के बाद भी बनी रहती है अथवा कुम्भकार का चाक एक बार चला देने पर कुछ काल चलता ही रहता है, उसी प्रकार से कषायों का अभाव हो जाने पर भी उनसे प्रेरित जो योग प्रवृत्ति होती है, वह बनी रहती है । इस प्रकार उपर्युक्त तीनों गुणस्थानों में योग प्रवृत्ति के कारण शुक्ल लेश्या के सद्भाव को स्वीकार किया जा सकता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कषाय का अभाव हो जाने पर योग प्रवृत्ति के रूप में जो शुक्ल लेश्या बनी रहती है, वह कर्मो का बन्ध नहीं करती है । वह तो लोकमंगल प्रवृति रूप होती है । सर्वार्थसिद्धि में चारों ध्यानों में गुणस्थानों का अवतरण :
पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में नवें अध्याय के ३४ वें, ३५ वें एवं ३६३ सूत्र की व्याख्या करते हुए किस ध्यान का स्वामी किस गुणस्थानवी जीव होता है, इसकी चर्चा की है। चौतीसवें सूत्र की टीका में, आर्तध्यान का स्वामी कौन होता है ? इस बात का निर्देश किया गया है, ३५ वें सूत्र की टीका में रौद्र ध्यान की चर्चा है । ३६वें सूत्र की टीका में धर्मध्यान के प्रकारों की चर्चा की है और उनके स्वामी कौन-कौन से गुणस्थानवी जीव होते है, इसका निर्देश किया गया है । अड़तीसवें सूत्र की टीका में अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों के स्वामी कौन-से गुणस्थानवी जीव होते हैं, इसकी चर्चा है । (अ) आर्तध्यान - :
सर्वार्थसिद्धि में २६वें अध्याय के ३४वें सूत्र की टीका में आर्तध्यान के चार प्रकार बताये गए हैं । इन चार प्रकारों के आर्तध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थानों के जीव अविरत कहलाते हैं । संयतासंयत जीव देशविरत कहे जाते हैं तथा पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से युक्त क्रिया करने वाले जीव प्रमत्तसंयत कहलाते हैं । इनमें से अविरत और देशविरत जीवों को चारों प्रकार के आर्तध्यान होते हैं, क्योंकि वे असंयमरूप परिणामवाले होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को तो निदान आर्तध्यान को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता के
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