Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{227} सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टि में चारो उपशमक सबसे अल्प हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान का अल्प-बहुत्व, अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । प्रमत्तसंयत से संयतासंयत संख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि में अप्रमत्तसंयत सबसे अल्प है। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में चारो उपशमक सबसे अल्प हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इस मार्गणा की अपेक्षा शेष सासादनसम्यग्दृष्टि आदि का अल्प-बहुत्व नहीं है।
___ संज्ञीमार्गणा में संज्ञी का अल्प-बहुत्व चक्षुदर्शनवालों के समान है । असंज्ञी का अल्प-बहुत्व नहीं है, क्योंकि वे सभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती हैं । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का अल्प-बहुत्व केवलज्ञानी के समान है।
आहार मार्गणा में आहारकों का अल्प-बहुत्व काययोगी के समान है । अनाहारकों में केवली समुद्घात करनेवाले सयोगी केवली सबसे अल्प हैं । इनसे अयोगी केवली संख्यातगुणा हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा हैं।
सर्वार्थसिद्धि टीका में विभिन्न गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के संवर (बन्ध-विच्छेद) का विवेचन . _ प्रथम मिथ्यात्व नामक गुणस्थान में सम्यक्त्व का सद्भाव नहीं होता है, अतः सम्यक्त्व के निमित्त से बन्धनेवाली तीन प्रकृतियों का इसमें संवर या बन्ध-विच्छेद होता है । वे तीन प्रकृतियाँ हैं - १ तीर्थकरनामकर्म, २ आहारकशरीर और ३ आहारकअंगोपांग। द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय का अभाव होने से इसमें मिथ्यात्व के निमित्त से बन्ध को प्राप्त होनेवाली निम्न कर्मप्रकृतियों का बन्ध विच्छेद (संवर) होता है - मिथ्यात्वमोह और नपुंसकवेद - ये दो मोहनीय कर्म की तथा आयुष्य कर्म की - नरकायु तथा नामकर्म की १३ प्रकृतियाँ नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, हुंडकसंस्थान, सटिक संघयण, नरकानुपूर्वी, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनाम, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म-ऐसी सोलह प्रकृतियाँ और पूर्वोक्त तीन-इसप्रकार उन्नीस कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर होता है । तृतीय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय के साथ-साथ अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव होता है । इन दोनों के उदय के अभाव के कारण दर्शनावरणीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ स्त्यानगृद्धित्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि) मोहनीय कर्म की सात कर्मप्रकृतियाँ - अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद और स्त्रीवेद-ये सात कर्मप्रकृतियाँ, गोत्र कर्म की नीच गोत्र, आयुष्य कर्म की चारों ही आयु (देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायु) और नाम कर्म की पूर्वोक्त सोलह के साथ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भगत्रिक (दुर्भग, अनादेय, अपयश) मध्यमसंस्थान चतुष्क (न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन और कुब्ज) मध्यम संघयण चतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलिका) उद्योतनाम, अशुभविहायोगति- इस तरह नामकर्म की इकतीस कर्मप्रकृतियों और कुल ४६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता
चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान में दर्शनावरणीय की पूर्वोक्त तीन, मोहनीय की सात, गोत्र की एक, आयुष्य की दो और नामकर्म की तीस कर्मप्रकृतियों-कुल ४३ कर्मप्रकृतियों काबन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है।
पंचम संयतासंयत नामक गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की पूर्वोक्त तीन, मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त ७ + ४ (अप्रत्याख्यानी, चतुष्क) = ११ नाम कर्म की पूर्वोक्त ३० और व्रजऋषभनाराच संघयण, मनुष्यद्विक (मनुष्यगति, मनुष्यप्रायोग्यानुपूर्वी) औदारिकद्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग)-ये पांच सभी मिलकर ३५, आयुष्य कर्म की पूर्वोक्त दो और मनुष्य आयुष्य-इस तरह तीन, गोत्र कर्म की एक-इस प्रकार कुल ५३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर होता है ।
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