Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
पुढवीकायादीणं पंचसु जाणाहि मिच्छगुणठाणं । तसकायिएसु चोद्दस भणिया गुणणामधेयाणि ।। अर्थ-पृथ्वीकाय आदि पांच में मिथ्यात्व गुणस्थान हैं । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान हैं।
सच्चे मणवचिजोगे असच्चमोस य तह य दोन्हं पि । मिच्छादिट्ठिप्पहुदी जोगंता तेरसा होंति ।। अर्थ - सत्य - मन-वचनयोग में और असत्यमृषा - मन-वचनयोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली पर्यन्त, तेरह गुणस्थान होते हैं। शेष दो मनोयोग और दो वचनयोग में प्रथम से क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं ।
वेउव्वकायजोगे चत्तारि हवंति तिण्णि मिस्सिम्हि । आहारदुगस्सेगं पमत्तठाणं विजाणाहि ।।
अर्थ - वैक्रिय काययोग में आदि के चार एवं वैक्रियमिश्र में तृतीय को छोड़कर, ये तीन गुणस्थान होते हैं। आहार-द्वय में एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है।
कम्मइयस्स य चउरो तिण्हं वेदाण होंति णव चेव । वेदे व कसायाणं लोभस्स वियाण दस ठाणं ।।
अर्थ- कार्मणकाययोग में मिथ्यात्व, सासादन, असंयत और सयोगकेवली- ये चार गुणस्थान होते हैं। तीन वेदों में भाववेद की अपेक्षा नौ गुणस्थान होते हैं । वेद के समान ही तीनों कषायों में नौ गुणस्थान एवं लोभकषाय में दस गुणस्थान होते हैं । तिण्णं अण्णाणाणं मिच्छादिट्ठी सासणो होदि । मदिसुदओहीणाणे चउत्थादो जाव खीणंता ।।
अर्थ-तीन कुज्ञान में मिथ्यात्व और सासादन- ये दो गुणस्थान होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञान में चौथे से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं ।
तृतीय अध्याय........{187}
पज्जवहिणियमा सत्तेव व संजदा समुद्दिट्ठा । केवलिणाणे णियमा जोगी अजोगी य दोण्णि मदे ||
अर्थ - मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त सात ही गुणस्थान हैं । केवलज्ञान में नियम से सयोगीकेवली और अयोगकेवली- ये दो ही गुणस्थान माने गए हैं ।
सामायियछेदणदो जाव णियत्ते ति परिहारमप्पमत्तोत्ति । सुहुमं सुहुमसरागे उपसंतादी जहाखादं ।।
अर्थ- सामायिक-छेदोपस्थापनीय में छठे से अनिवृत्तिकरण पर्यन्त चार गुणस्थान हैं। परिहारसंयम में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ऐसे दो ही गुणस्थान होते हैं। सूक्ष्मसरागसंयम में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान ही है और उपशान्त से लेकर अयोगी पर्यन्त चार गुणस्थान यथाख्यात संयम में होते हैं।
विरदाविरदं एक्कं संजममिस्सस्स होदि गुणठाणं। हेट्ठिमगा चउरो खलु असंजमे होंति णादव्वा ।। अर्थ-संयमासंयम में विरताविरत नामक एक गुणस्थान है और असंयम में आदि के चार गुणस्थान होते हैं।
मिच्छादिट्टिप्पहूदी चक्खु अचक्खुस्स होंति खीणंता । ओधिस्स अविरद पहुदि केवल तह दंसणे दोण्णि । । अर्थ-चक्षु और अचक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त, अवधिदर्शन में अविरत से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त एवं केवलज्ञान में मात्र दो गुणस्थान हैं ।
मिच्छादिट्ठिप्पहुदी चउरो सत्तेव तेरसंतंतं । तियदुग एक्कस्सेवं किण्हादीहीणलेस्साणं ।।
अर्थ- कृष्ण आदि तीन लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि से लेकर चार गुणस्थान पर्यन्त, आगे की दो लेश्याओं में पहले से सात पर्यन्त एवं शुक्ल लेश्या में पहले से लेकर तेरहवें पर्यन्त गुणस्थान हैं।
भवसिद्धिगस्स चोद्दस एक्कं इयरस्स मिच्छगुणठाणं । उवसमसम्मत्तेसु य अविरदपहुदिं च अट्ठेव ।। अर्थ-भव्यसिद्धिक जीवों में चौदह गुणस्थान हैं। अभव्यसिद्धिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान है । उपशम सम्यक्त्व में अविरत से लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान होते हैं।
तह वेदयस्स भणिया चउरो खलु होंति अप्पमत्ताणं । खाइयसम्मत्तम्हि य एयारस जिणवरुदिट्ठा ।। अर्थ-वेदक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं एवं क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर अयोगीकेवली तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा
है
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