Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{186} एक गुणस्थान की अपेक्षा दूसरे गुणस्थानवर्ती आत्मा को ज्येष्ठ माना है । हमें तो ऐसा लगता है कि यहाँ वसुनन्दि बिना किसी प्रसंग के ही गुणस्थानों की इस चर्चा को उठा रहे है, क्योंकि ज्येष्ठ कल्प का सम्बन्ध छेदोपस्थापनीय चारित्र में दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता से ही है, न कि गुणस्थानों से। मूलाचार की गाथा क्रमांक ६४२ में कहा गया है कि व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का तप भी महागुणकारी नहीं है, क्योंकि वह तो हाथी के स्नान के समान है। हमारी दृष्टि में यहाँ भी मूल गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है, किन्तु टीकाकार वसुनन्दि ने 'गुण' शब्द को देखकर यह कह दिया है कि यहाँ गुणस्थानों की अपेक्षा से चारित्र के महत्व की चर्चा है। इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक ६८७ में कहा गया है कि कारणों के नष्ट होने पर कार्य स्वयं ही नष्ट हो जाता है, इसीलिए कारण का ही विनाश करना चाहिए। यहाँ भी मूल गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी संकेत नहीं है, फिर भी इसकी टीका में वसुनन्दि लिखते है कि प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती सभी मुनियों को इन हेतुओं का विनाश करना चाहिए । हमारी दृष्टि में यहाँ वसुनन्दि अपेक्षा न होते हुए भी गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं । इस प्रकार वसनन्दि ने गाथा क्रमांक ८८५.६११,६४२ और ६१७ में गुणस्थान सम्बन्धी जिस चर्चा को उठाया है, वह वहाँ प्रासंगिक नहीं लगती है, क्योंकि मूल ग्रन्थ कर्ता गुणस्थानों की अपेक्षा से कोई चर्चा प्रस्तुत नहीं करते हैं। व्याख्याओं में जो गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश है, वे टीकाकार के अपने दृष्टिकोण पर अवतरित हैं।
इस प्रकार देखते हैं कि मूलाचार में लगभग ग्यारह सौ अठासी गाथाओं तक गुणस्थान सम्बन्धी प्रकीर्ण निर्देशों को छोड़कर उनकी कोई विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ११८६ में स्पष्टरूप से चौदह जीवस्थानों, चौदह मार्गणास्थानों और चौदह गुणस्थानों का निर्देश हुआ है।२०१ ।
इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ११६७-११६८ में चौदह गुणस्थानों के नाम प्रतिपादित किए गए हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं, अपितु वे गुणस्थानों के जीवस्थानों और मार्गणास्थानों से सहसम्बन्ध की अवधारणा से भी सुपरिचित रहे हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि ने गाथा क्रमांक ११६७-११६८ की टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है । आगे . गाथा क्रमांक १२०२ में, चार गतियों में कौन-कौन से गुणस्थान होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । यहाँ कहा गया है कि देव और नारक गतियों में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में प्रथम के पांच तथा मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। इस गाथा की टीका में वसुनन्दि ने चौदह मार्गणाओं की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । वसुनन्दि द्वारा विवेचित विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों की यह चर्चा पूज्यपाद देवनन्दी के द्वारा रचित सर्वार्थसिद्ध टीका में की गई चर्चा के समरूप ही है।
यहाँ विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि फलटण से प्रकाशित मूलाचार में पन्द्रह गाथाएं अधिक मिलती हैं। ये गाथाएं भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार की गाथा २०३ के बाद दी गई हैं। इन गाथाओं में चौदह मार्गणाओं में गुणस्थानों को घटित किया गया है । यह एक विवाद का प्रश्न है कि ये गाथाएं मूलाचार की मूल गाथाएं हैं, अथवा कालान्तर में उसमें प्रक्षिप्त की गई है। वसुनन्दि कृत टीका में मूल में यह गाथाएं नहीं दी गई हैं। यद्यपि उन्होंने अपनी टीका में मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण अवश्य किया है, जिसका निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं। यदि हम इन पन्द्रह गाथाओं को मूलाचार की मूल गाथाएं माने, तो यह कह सकते हैं कि मूलाचार में मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण निम्न प्रकार से हुआ है२०२ -
एगविगलिदियाणं मिच्छादिहिस्स होइ गुणठाणं । आसादणस्स केहि वि भणियं चोद्दस सयलिंदियाणं तु ।।
अर्थ-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं। कोई आचार्य एकेन्द्रिय में तेज और वायु को छोड़कर, शेष तीन में सासादन भी कहते हैं। पंचेन्द्रियों में चौदह गुणस्थान हैं। २०१ एइंदियादि पाणा चोद्यस दु हवंति जीवठाणाणि ।
गुणठाणाणि व चोद्यस मग्गणठाणाणिवि तहैवा ।। मूलाचार, लेखक : आ. वट्टकेर, सम्पादक : ज्ञानमतिजी, प्रकाशक : भारतीय
ज्ञानपीठ, देहली, तृतीय संस्करण, ई.सन् १९६६ २०२ मूलाचार, सं. आर्यिकाज्ञानमतिजी, भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, चतुर्थ संस्करण १६६६ ई. उत्तरार्द्ध पृ. ३२७-३२६
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