Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{179} हैं कि आचार्य कुंदकुंद और आचार्य वट्टकेरि में से कौन इस ग्रन्थ का वास्तविक रचनाकार है, फिर भी हमारी दृष्टि में इसके रचनाकार के रूप में आचार्य वट्टकेरि का नाम ही अधिक युक्तिसंगत होता है।
इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें सैंकड़ों गाथाएं श्वेताम्बर आगम साहित्य से विशेषरूप से उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, आवश्यकनियुक्ति आदि से आंशिक पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है । यहाँ हम इस विवाद में भी उतरना आवश्यक नहीं समझते हैं कि ये गाथाएं किससे किसने ली है, फिर भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए ग्रन्थ का यह वैशिष्ट्य दृष्टव्य अवश्य है।
जहाँ तक इस ग्रंथ के रचनाकाल का प्रश्न है, मूलग्रन्थ और उसकी टीका से कोई भी स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। इतना निश्चित है कि भगवतीआराधना की अपराजितसूरि की टीका में, तिलोयपन्नती में तथा षट्खण्डागम की धवला टीका में मूलाचार के उल्लेख अथवा उसकी गाथाएं प्राप्त होती हैं। इन आधारों पर हम इसका काल लगभग पांचवी-छठी शताब्दी के आसपास निर्धारित कर सकते हैं, क्योंकि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे विस्तृत विवेचन न हो, किन्तु इसके कर्ता गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित रहे हैं। गुणस्थान की अवधारणा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के बाद ही विकसित हुई है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है । अतः इस ग्रन्थ को तत्त्वार्थसूत्र से तो परवर्ती ही मानना होगा। विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र का काल लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी माना है, अतः यह ग्रन्थ पांचवीं-छठी शताब्दी के आसपास का होना चाहिए। आगे हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि मूलाचार और उसकी वसुनन्दि की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा किस रूप में प्रस्तुत है । मूलाचार में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा :
आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार२०० के पूर्वार्द्धभाग के मूलगुण नामक प्रथम अधिकार की प्रथम गाथा में संयत शब्द आया है । उस प्रथम गाथा में आचार्य वट्टकेर मंगलाचरण के द्वारा मूलगुणों के परिपालन में विशुद्ध सभी संयतों को नमस्कार करते हैं। मूलग्रन्थ में इतना ही वर्णित है, परन्तु टीकाकार वसुनन्दि और अनुवादिका आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी ने संयत शब्द से प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी संयतों को नमस्कार करके ग्रन्थ में उल्लेख योग्य मूलगुणों का वर्णन करूँगा-ऐसा अर्थ किया है।
मूलाचार ग्रन्थ के प्रथम मूलगुण अधिकार की पंचम गाथा में बताया गया है कि काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि इनमें सभी जीवों को जानकर कायोत्सर्ग आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है । यहाँ टीकाकार ने गुण शब्द से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के चौदह ही गुणस्थानों को ग्रहण किया है ।
मूलाचार ग्रन्थ के द्वितीय अधिकार की ५६वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर ने तीन प्रकार के मरण का उल्लेख किया है । गाथा में तो मात्र "केवलिनः" शब्द से केवली भगवान को ग्रहण किया है, परन्तु टीका में तीन प्रकार के मरणों में गुणस्थान का अवतरण किया गया है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बाल कहलाते हैं, इसीलिए उनके मरण को बालमरण कहते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव बाल पण्डित मरण कहलाते है, इसीलिए उनके मरण को बालपण्डित कहते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयतों का जो मरण है, उन्हें पण्डित-मरण कहते हैं।
मूलाचार के द्वितीय अधिकार की १०७ वीं गाथा में ग्रन्थकार प्रार्थना करते है कि हे भगवान्, जो गति अरिहंतों की हुई, सिद्धों की जो गति हुई तथा मोहरहित जीवों की जो गति हुई है, वही गति सदा के लिए मेरी हो । इस गाथा में 'वीदमोहाणं' शब्द से जिनका मोह क्षय हो चुका है-ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवों का ग्रहण किया है।
मूलाचार के संक्षेपप्रत्याख्यान नामक तृतीय अधिकार में आचार्य वट्टकेर १०८ वी गाथा में कहते हैं कि जिनवर में प्रधान-ऐसे वर्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। इस गाथा में गुणस्थान शब्द या गुणस्थान के नाम का उल्लेख नहीं है, परन्तु
२०० मूलाचार भाग १ एवं २ लेखक : आ. वट्टेकर, सम्पादक : ज्ञानमतिजी, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, तृतीय संस्करण सन् ६६८
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