Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{158} हैं और अबन्धक भी हैं। केवल दर्शन वाले सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं तथा अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी अबन्धक हैं। ___लेश्यामार्गणा के अनुसार कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्यावाले जीव बन्धक हैं। अलेशी अर्थात् लेश्यारहित जीव अबन्धक हैं।
भव्यमार्गणा के अनुसार अभव्य जीव बन्धक हैं । भव्य जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं । सम्यक्त्वमार्गणा के अनुसार मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक हैं। सम्यग्दृष्टि जीव बन्धक भी हैं तथा अबन्धक भी हैं। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर त्रयोदश गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव बन्धक हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक हैं।
संज्ञीमार्गणा के अनुसार संज्ञी और असंज्ञी जीव बन्धक हैं। संज्ञित्व और असंज्ञित्व-इन दोनों संज्ञा से रहित सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। केवली में विकल्पात्मक मन का अभाव होने से, उसे संज्ञी और असंज्ञी पद से रहित माना गया है।
आहारमार्गणा के अनुसार आहारक जीव बन्धक है तथा अनाहारक जीव अबन्धक हैं।
षट्खण्डागम के क्षुद्रबन्धक नामक द्वितीय खण्ड में विभिन्न गुणस्थानवी जीवों में बन्ध के निर्देश के पश्चात बन्धकों की प्ररूपणा में प्रयोजनभूत निम्न ग्यारह अनुयोगद्वारों का उल्लेख हुआ है - (१) एक जीव की अपेक्षा बन्ध स्वामित्व, (२) एक जीव की अपेक्षा बन्ध काल, (३) एक जीव की अपेक्षा बन्ध अन्तर, (४) सभी जीवों की अपेक्षा बन्ध भंगविचय, (५) द्रव्यप्ररूपणानुगम, (६) क्षेत्रानुगम, (७) स्पर्शानुगम, (८) सभी जीवों की अपेक्षा काल, (६) सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर, (१०) भावा- भावानुगम, (११) अल्प-बहुत्वानुगम।
हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा हैं । अतः जहाँ-जहाँ जिस-जिस मार्गणा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन है, उसी का उल्लेख करेंगे ।
जीव की अपेक्षा बंध स्वामित्व नामक प्रथम द्वार की आठवीं संयममार्गणा में यह बताया गया है कि जीव संयत सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र की शुद्धि को कैसे प्राप्त होता है? औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक लब्धि से जीव संयम ग्रहण कर सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र रूपी विशुद्धि को प्राप्त होता है । औपशमिक लब्धि से चारित्र मोहनीय के सर्वथा उपशम के द्वारा उपशान्तकषाय गुणस्थान में तथा क्षायिक लब्धि से चारित्र मोहनीय के सर्वथा क्षय के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान में जीव संयमी जीवन की विशुद्धि को प्राप्त होता है। उपशमक और क्षपक दोनों में ही सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र की विशुद्धि होती है। सूक्ष्मसम्पराय रूप चारित्र की विशुद्धि औपशमिक और क्षायिक लब्धि से प्राप्त होती हैं। यथाख्यात चारित्र की पूर्ण विशुद्धि उपशान्तकषाय गुणस्थान में औपशमिक लब्धि से और क्षीणकषायादि गुणस्थानों में क्षायिक लब्धि से होती है।
तत्पश्चात् चौदहवीं आहारमार्गणा की चर्चा में यह बताया गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अनाहारक होते हैं, यह अवस्था क्षायिक लब्धि से प्राप्त होती है, क्योंकि उनके समस्त कर्मों का क्षय हो चुका है, किन्तु विग्रहगति में जो अनाहारक अवस्था प्राप्त होती है, वह औदयिक भाव से होती है, क्योंकि विग्रहगति में कर्मों का उदय पाया जाता है।
काल नामक द्वितीय द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में एक जीव की अपेक्षा से यह बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही इस गुणस्थान में रहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छः आवलि तक इस गुणस्थान में रहते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक इस गुणस्थान में रहते हैं, किन्तु यह काल स्थिति उन मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से कही गई है, जिन्होंने कम से कम एक बार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया
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