Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{37) और प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा आवरणीय कर्मों को क्षय करके और कर्मरज की विशुद्धि करते हुए अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होकर, अनन्त, अनुत्तर, निराबाध, निरावरण, सम्पूर्ण-ऐसे श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। अन्त में सर्व दुःखों का अन्त करके मुक्ति को प्राप्त किया। यह विवरण आंशिक रूप से ज्ञाताधर्मकथा के तैतलीपुत्र नामक अध्ययन से समानता रखता है। उसके समान यहाँ भी यह कहा गया है कि गजसुकुमाल अणगार ने अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। हमारी दृष्टि में यहाँ अपूर्वकरण शब्द अपूर्वकरण गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत न होकर तीन करणों में दूसरे अपूर्वकरण से सम्बन्धित प्रतीत होता है। इसे गुणस्थान से सम्बन्धित करने में कठिनाई यह है कि वहाँ अपूर्वकरण के पश्चात् सीधे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति की बात कही गई है। यदि इस अपूर्वकरण शब्द का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त के साथ होता तो फिर मध्यवर्ती अवस्थाओं का भी उल्लेख होना था। अंग-आगमों में ज्ञाताधर्मकथा के पश्चात् प्रश्नव्याकरणदशा ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें कुछ ऐसे शब्द है, जिन्हें प्रथम दृष्ट्या गुणस्थान से सम्बन्धित माना जा सकता है। ९. अनुत्तरोपपातिकसूत्र" और गुणस्थान :
___अंग-आगमों में अनुत्तरोपपातिकसूत्र का क्रम नवाँ है। इस आगम ग्रन्थ में मुख्य रूप से उन आत्माओं के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है, जिन्होंने इस जीवन में अपनी साधना के द्वारा अनुत्तरविमान में जन्म लिया है और वहाँ से एक मनुष्यभव करके वे मुक्त होनेवाले हैं। स्थानांगसूत्र में अनुत्तरोपपातिकदशा के दस अध्ययनों का उल्लेख है। वे निम्न है - (१) ऋषिदास (२) धन्य (३) सुनक्षत्र (४) कार्तिक (५) संस्थान (६) शालिभद्र (७) आनंद (८) तैतली (६) दशार्णभद्र और (१०) अतिमुक्तक, किन्तु वर्तमान में अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग हैं; जिसके प्रथम वर्ग में दस, द्वितीय वर्ग में तेरह और तृतीय वर्ग में दस, इसप्रकार तैतीस अध्ययन है । इसप्रकार स्थानांग आदि में अनुत्तरोपपातिकदशा की जो विषयवस्तु वर्णित है, उससे उपलब्ध विषयवस्तु में अन्तर प्रतीत होता है, यद्यपि इसके तृतीय वर्ग में अध्यायों के जो नाम दिए गए हैं, उसमें कुछ का साम्य प्राचीन विषयवस्तु से है, जैसे ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र। जहाँ तक इसमें वर्णित व्यक्तित्वों का प्रश्न है, उनमें से अधिक जैन परम्परा में सुविस्तृत है, जैसे धन्ना, शालिभद्र, अभयकुमार आदि। वर्तमान में प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु के अध्ययन का हमारा मुख्य प्रयोजन तो गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की खोज करना है, अतः हम इन महान् व्यक्तियों के चरित्रों का चित्रण न कर आगे हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस अंग-आगम में गुणस्थान की अवधारणा के कुछ संकेत उपलब्ध हैं या नहीं? १०. प्रश्नव्याकरणसूत्र और गुणस्थान :
- अंग-आगमों में दसवाँ स्थान प्रश्नव्याकरणसूत्र का है। स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए उसके दस अध्यायों का उल्लेख है। यद्यपि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी दस ही अध्याय हैं, किन्तु इन अध्यायों के नाम स्थानांग, समवायांग और नंदीसूत्र में वर्णित नामों से सर्वथा भिन्न है। वर्तमान में इसमें इसके दो श्रुतस्कंध है। प्रथम श्रुतस्कंध के पाँच अध्याय है- हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह। दूसरे श्रुतस्कंध में भी पाँच ही अध्याय हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इसी आधार पर प्रथम श्रुतस्कन्ध को आश्रवद्वार और द्वितीय श्रुतस्कन्ध को संवरद्वार में कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु में कैसे, कब और कितना परिवर्तन हुआ है, इस प्रश्न को लेकर डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु' में विस्तार से चर्चा की है। उनके अनुसार उपलब्ध ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि की विषयवस्तु ही प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु रही है, किन्तु हम यहाँ इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते। हमारा मुख्य प्रयोजन तो प्रश्नव्याकरणसूत्र की उपलब्ध विषयवस्तु में गुणस्थान की अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए हम तो उपलब्ध विषयवस्तु को आधार मानकर ही इस सम्बन्ध में खोज करेंगे। वर्तमान में प्रश्नव्याकरणसूत्र की जो विषयवस्तु आस्रव और संवरद्वार के रूप में
८८ वही, भाग-३, अनुत्तरोववाई ८६ वही, भाग-३, पण्हावागरणाओ.
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