Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{93} में पाए जाते है। सासादन गुणस्थानवी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि सासादनवाले को नरकायु का बन्ध नहीं होता है। नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण सम्भव नहीं है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मरण सम्भव ही नहीं है, अतः यह गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही पाया जाता है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव द्वितीयादि पृथ्वियों में उत्पन्न नहीं होता है।
तिर्यंच जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं। जिन जीवों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करने से पहले मिथ्यादृष्टि की अवस्था में तिर्यंच का आयुष्य बांध लिया है, उन जीवों की सम्यग्दर्शन के साथ तिर्यंचों में उत्पत्ति होती है, किन्तु शेष सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति वहाँ नहीं होती है । ज्ञातव्य है कि जिन्होंने तिर्यंच आयुष्य का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में बन्ध कर लिया है, वे मरकर भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, कर्मभूमि के तिर्यंच में नहीं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में तिर्यंच जीव पर्याप्त ही होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय की प्ररूपणा सामान्य तिर्यचों के समान है। योनिमति तिर्यंच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त होते हैं। सासादन गुणस्थानवी जीव मरकर नरक में नहीं जाता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानवर्ती को नरकायु का बन्ध नहीं होता है, क्योंकि नरकायु का बन्ध करनेवाले जीव का मरण सम्भव नहीं हैं। योनिमति तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में पर्याप्त अवस्था में ही होते है। ऊपर के गुणस्थानों में मरकर कोई भी जीव योनिमति तिर्यचों में उत्पन्न नहीं होता है। अपर्याप्त तिर्यंचों को मिथ्यात्व गुणस्थान छोड़कर दूसरा कोई भी गुणस्थान सम्भव नहीं होता है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं । पर्याप्त मनुष्य की प्ररूपणा सामान्य मनुष्यों के समान समझना चाहिए, अर्थात् उनमें चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं। मिथ्यादृषि गणस्थानों में मनष्यनी कभी पर्याप्त भी होती है और कभी अपर्याप्त भी होती है। सम्यग्मिथ्यादष्टि. असंयतसम्यग्दष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में मनुष्यनी पर्याप्त ही होती हैं। यह उल्लेख धवला एवं हिन्दी व्याख्या में है, किन्तु षट्खण्डागम के मूल पाठ में संयतासंयत, संयत आदि गुणस्थानों में मनुष्यनी पर्याप्त ही होती है, ऐसा उल्लेख है ।१७८(१/६३)
मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में देव कभी पर्याप्त भी होते हैं और कभी अपर्याप्त भी होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव पर्याप्त ही होते हैं। क्योंकि तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में तीसरे गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती है। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्प की देवियाँ - ये सब मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होती हैं तथा कभी अपर्याप्त भी होती हैं। इन दोनों गुणस्थानों से युक्त जीव उपर्युक्त देव और देवियों में उत्पन्न होते हैं, इसीलिए दोनों अवस्थाएं सम्भव हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त देव और देवियाँ पर्याप्त ही होती हैं। सौधर्म और ईशान से लेकर ऊपर ग्रैवेयक विमानवासी देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं । देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तो पर्याप्त ही होते हैं । नौ अनुदिश में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सवार्थसिद्ध - इन पांच अनुत्तर विमानों में रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं ।
वेदमार्गणा में गुणस्थान का निरूपण करते हुए बताते हैं कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद-ये तीन वेद होते हैं। इन तीनों में से जिन्हें एक भी वेद नहीं होता है, वे जीव अपगतवेदी कहलाते हैं। 'दोषैरात्मानं परं स्तृणाति छादयति स्त्री'-इस उक्ति
१७८ षट्खण्डागम, १/६३, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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