Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{113} औदारिक काययोगी चौथे और पांचवें गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। वैक्रियकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। वैक्रियकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का और कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहार तथा वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त वैक्रियकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव आठ बटे चौदह भाग को तथा मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त वे जीव नीचे छः और ऊपर सात रज्जु-इस प्रकार तेरह बटे चौदह भाग का स्पर्श करते हैं। वैक्रियकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । वैक्रियकाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान हैं। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए है। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों की अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं । कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को एक मात्र उपपाद पद ही होता है, शेष पद नहीं होते हैं। उपपाद पद में वर्तमान कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव मेरू तल के नीचे पांच रज्जु और ऊपर छः रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालो की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इतना क्षेत्र परिमाण बताने का कारण यह है कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के समान मेरूतल से नीचे पांच रज्जु परिमाण स्पर्शक्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है। कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यात बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रतरसमुद्घात प्राप्त सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यात बहुभाग का तथा लोक पूरण समुद्घात को प्राप्त सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं।
वेदमार्गणा में स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्री और पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह तथा नौ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। ये जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक
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