Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{155} हैं, किन्तु नीचे की चार नारक पृथ्वी के नारकी जीव जातिस्मरण ज्ञान और वेदना से अभिभूत होकर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। प्रथम तीन पृथ्वियों में देवों का जाना सम्भव होने से वहाँ धर्मोपदेश की संभावना मानी गई है। नीचे की चार पृथ्वियों में देवों का जाना सम्भव नहीं होने से वहाँ जातिस्मरण ज्ञान और वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। जहाँ तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों का प्रश्न है, वे वहाँ सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण में जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेश का श्रवण और जिनप्रतिमा का दर्शन-ये तीन कारण माने गए हैं। गर्भोपक्रांत संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य आठ वर्ष से अधिक की उम्र में ही तिर्यंचों के समान ही जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेश श्रवण और जिनप्रतिमा के दर्शन इन तीनों कारणों से सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं । देवों में ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक ही सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव होती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव ग्रैवेयक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव तो सम्यक्त्व से युक्त ही होते हैं। देवों में भवनपति से लेकर सहस्रार देवलोक तक के देव जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेशश्रवण, देव ऋद्धि के दर्शन और जिनप्रतिमा को
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। आनत-प्राणत. आरण-अच्यत इन चार कल्पों के निवासी मिथ्यादष्टि देव जातिस्मरणज्ञान. धर्मोपदेशश्रवण और जिन प्रतिमा को देखकर सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। ग्रैवेयक विमानवासी देव केवल जातिस्मरणज्ञान और धर्मोपदेश श्रवण-इन दो कारणों से ही सर्वप्रथम औपशमिर हैं, क्योंकि न तो वे तीर्थंकर परमात्मा के कल्याणक महोत्सव में जाते हैं और न ही वे अष्टान्हिका आदि के अवसर पर नंदीश्वर द्वीप जाते हैं। इस प्रकार इस नवीं चूलिका में भी सर्वप्रथम सम्यक्त्व के उत्पत्ति के कारण की चर्चा है । इसके पश्चात् इस चूलिका में यह बताया गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव इन गुणस्थानों में आयुष्य पूर्ण करके कहाँ उत्पन्न होते हैं। इसमें यह भी बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि नारकी, नरक से निकलकर एक मात्र मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं। मनुष्यों में भी वे गर्भोपक्रांत पर्याप्त संज्ञी में संख्यातवर्ष की आयुवालों में ही जन्म लेते हैं। इसी क्रम में यह भी कहा गया हैं, कि सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, चूंकि इस गुणस्थान में मृत्यु सम्भव नहीं है, अतः वे इस गुणस्थान में अपनी आयुष्य पूर्ण नहीं करते हैं। साथ ही यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सातवीं नारक पृथ्वी के सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव इन गुणस्थानों में उस सातवीं नारकी के नरकायु को पूर्ण नहीं करते। वे मिथ्यात्व को ग्रहण करके ही नियम से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं ।
षखण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की इस नवीं चूलिका में तिर्यंच जीव किन-किन गतियों में जाते हैं; इसका भी विवेचन किया गया है । इस सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, तिर्यंच पर्याय में मरकर नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु जहाँ तक सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों का प्रश्न हैं, वे तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन तीन गतियों में ही जाते हैं। पुनः तिर्यंच में जन्म लेते हुए वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं, विकलेन्द्रिय तिर्यंच में जन्म नहीं लेते । यदि वे एकेन्द्रिय में जन्म लेते हैं, तो वे बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर एवं पर्याप्त अवस्था में ही जन्म लेते हैं। यदि उनका जन्म पंचेन्द्रिय तिर्यंच में हो, तो वे नियम से गर्भज पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं ।
यदि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव मनुष्यों में जन्म लेते हैं, तो वे गर्भज पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य में ही जन्म लेते हैं।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं, अतः उनके किसी भी गति में जन्म लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव इस गुणस्थान में आयुष्य पूर्ण करते हैं, तो वे सौधर्म देव लोक से लेकर अच्युत देवलोक के कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होते हैं। इस चर्चा के प्रसंग में यह भी बताया गया है कि असंख्यात वर्ष की आयुष्यवाले तिर्यच में, चाहे वे मिथ्यादृष्टि हो, सासादनसम्यग्दृष्टि हो अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि हो, मृत्यु को प्राप्त करके देवलोक मे ही जाते हैं।
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