Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय ........{110}
संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग का और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । स्वस्थान- स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रिय, तेजस और आहारक समुद्घात प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्यलोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्यलोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का, असंख्यात बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं ।
विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। नारकी मिथ्यादृष्टि जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । यह स्पर्शक्षेत्र का परिमाण मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त और उपपाद प्राप्त नारक मिथ्यादृष्टि जीवों का समझना चाहिए । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रथम नरक पृथ्वी में रहे हुए नारकियों में मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। समुद्घात प्राप्त नारकी जीव अतीत काल की अपेक्षा यथाक्रम द्वितीय पृथ्वी से लेकर छठी पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के नारकियों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद प्राप्त उक्त नारकी जीव अतीत काल की अपेक्षा यथाक्रम से लोक के चौदह भागों में से कुछ कम एक, दो, तीन, चार और पांच भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । द्वितीय पृथ्वी से लेकर छठी पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी में रहे हुए नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद प्राप्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकीय जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के इन तीनों गुणस्थानवर्ती जीवों के मारणान्तिक और उपपाद-ये दो पद नहीं होते हैं, शेष पांच पद होते हैं।
तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव ओघ की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच भूत और भविष्य काल की अपेक्षा लोक का कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हु हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् स्त्री में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । ये तीनों प्रकार के तिर्यंच जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। शेष सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों का स्पर्श क्षेत्र सामान्य तिर्यंचों के समान है । लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए 1
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