Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
View full book text
________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{89} जो नर अर्थात् प्राणियों का अतिपात करता है या उन्हें दुःख देता है, वह नरक है । नरक एक कर्म है । उस कर्म के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले को नारक तथा उनकी गति को नरक गति कहते हैं। जिस गति में अशुभ कर्म का उदय है, उसे नरक गति कहते हैं। जो तिरस् अर्थात् वक्र या कुटिल भाव को प्राप्त होते हैं, उन्हें तिथंच और उनकी गति को तिर्यंचगति कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो मनसा, वाचा और कर्मणा कुटिल है, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यध है, जो निकृष्ट अज्ञान वाले हैं, जिन में पाप की बहुलता पाई जाती है, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। जो मन से निपुण अर्थात् गुण-दोष आदि का विचार करते हैं और जो मनु की सन्तान हैं, उनकी गति को मनुष्य गति कहते हैं। जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियों के बल से क्रीड़ा करते हैं, उन्हें देव और उनकी गति को देवगति कहते हैं। जो जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, आहारादि संज्ञाओं और रोगादि से रहित है, उन्हें सिद्ध और उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं।
नरकगति में गुणस्थानों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि नारकी के जीवों में मिथ्यादृष्टि , सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान पाए जाते हैं, किन्तु अपर्याप्त नारकी के जीवों में सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नहीं होते हैं। पर्याप्त अवस्था में सातों नारकी के जीवों में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का सद्भाव पाया जाता है। बद्ध आयुष्यवाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नारकी में उत्पन्न होता है, अतः प्रथम नारकी में अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन होता है, परन्तु कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर दूसरी आदि नारकी में उत्पन्न नहीं होता है, अतः द्वितीय आदि नारकी में अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन नहीं होता हैं। नरकगति में इन चार गुणस्थानों के अलावा अन्य गुणस्थान नहीं होते हैं, क्योंकि यहाँ संयमासंयम और संयम के भाव उत्पन्न नहीं हो सकते है। तिर्यंच जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत-ये पांच गुणस्थान पाए जाते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि
और सासादन गुणस्थान में बद्ध आयुष्यवाले अपर्याप्त तिर्यंच भी पाए जाते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान अपर्याप्त तिर्यंचों में नहीं होते हैं, क्योंकि अपर्याप्त तिर्यंच में इन दो गुणस्थानों का निषेध किया गया है। सामान्य तिर्यंच, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी और अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय-इन पांच प्रकार के तिर्यंचों में से अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उक्त पाँच गुणस्थान नहीं होते हैं, क्योंकि लब्धि पर्याप्त किन्तु योग्यता अपर्याप्त में एक मिथ्यात्व गुणस्थान, अपर्याप्त तिर्यंचनियों में मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि-ये दो गुणस्थान होते है। चूंकि तिर्यंचनियों में सम्यग्दृष्टिओं की उत्पत्ति नहीं होती है, इसीलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथ्वी के अतिरिक्त नीचे की छः पृथ्वियों में, ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देवों में और सभी प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है। मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण प्रविष्टशुद्ध संयतों में उपशमक और क्षपक, अनिवृत्ति बादर सम्पराय प्रविष्टशुद्धि संयतो में उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसंपराय में उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। देवगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान पाए जाते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी तिर्यच होते हैं। जिनके पास एक स्पर्श इन्द्रिय होती है, उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं। जो असंज्ञी होने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं, उन्हें असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच कहते हैं। पांचो प्रकार के एकेन्द्रिय, तीनों विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव केवल तिर्यंचगति में ही पाए जाते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पांच गुणस्थान होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अन्य तीनों गतिवाले जीवों में समान भाव से पाए जाते हैं। इसीलिए इन चार गुणस्थानों की अपेक्षा से तिर्यच जीव तीन गतिवाले जीवों के साथ समतुल्य कहे जाते हैं। संयमासंयम गुणस्थान की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय तिर्यंच की समानता केवल मनुष्यों के साथ ही है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के इन पांच गुणस्थानों के मनुष्य और तिर्यंच समान रूप से अधिकारी हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक तीन
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org